Atmadharma magazine - Ank 006
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: ९४ : आत्मधर्म : वैशाख : २०००
गणधरपदनी स्थापनानो विरोध
पार्श्वनाथ तीर्थंकर भगवानना शासनमां दीक्षा लीधेल एक काश्यप नामना मुनि हता, ते भगवान
महावीरना समोसरणमां धर्म उपदेश सांभळवा गयेल, तेनी मान्यता एवी हती के ‘पोते गणधरपदने लायक छे
तेथी गणधर तरीके पोतानी स्थापना थशे;’ पण बन्युं तेथी विरुद्ध– श्री ईन्द्रभूति (गौतम) ने गणधरपद मळ्‌युं
तेथी नाराज थई ते मुनि समोसरण बहार नीकळी ‘भगवान महावीर तीर्थंकर ज नथी, एक माया जाळीओ छे;
जो ते खरो तीर्थंकर होय तो मने गणधर पद मळत’ वगेरे कही विरोध करवा लाग्यो. सत्यनुं स्वरूप ज एवुं छे के
तेथी विरुद्ध असत्य जगतमां होय ज, अने असत्य भावनुं प्रगटपणुं सत्ना विरोधमां ज होई शके.
जैन शासन
जैनशासन शुं कहेवाय ते संबंधमां घणी विधविध प्रकारनी अने विचित्र मान्यताओ हालप्रचलित
जोवामां आवे छे. जिाज्ञासुओ साचुं स्वरूप समजी शके ते माटे आ संबंधे भगवान श्री कुंदकुंदाचार्ये शुं कह्युं छे ते
जणाववामां आवे छे:–
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुठ अणण्णमविशेषं।
अपदेश सन्त मज्झं पस्सदि जिणशासणं सव्वं।।
१५।।
अबद्धस्पृष्ट, अनन्य जे अविशेष देखे आत्मने
ते द्रव्य तेम ज भाव जिनशासन सकल देखे खरे. १५
अर्थ:– जे पुरुष आत्माने अबद्धस्पृष्ट (बंधरहित ने परना स्पर्श रहित) अन्यपणारहित, विशेषरहित
(तथा अध्याहारथी चळाचळता रहित, अन्यना संयोग रहित) देखे छे ते सर्व जिनशासनने देखे छे के जे
जिनशासन बाह्य द्रव्यश्रुत तेम ज अभ्यंतर ज्ञानरूप भावश्रुतवाळुं छे.
खुलासो–उपर कह्या तेवा पांच भावो स्वरूप आत्मानी अनुभूति ते ज समस्त जिनशासननी अनुभूति छे.
ज्ञान छे ते आत्मा छे अने आत्मा छे ते ज्ञान छे; आ प्रमाणे गुणी–गुणनी अभेद द्रष्टिमां आवतुं जे
सर्व पर द्रव्योथी जुदुं, पोताना पर्यायोमां एक रूप निश्चळ, पोताना गुणोमां एकरूप, परनिमित्तथी उत्पन्न
थयेल भावोथी भिन्न पोतानुं स्वरूप तेनुं अनुभवन ते ज्ञाननुं अनुभवन छे, अने आ अनुभवन ते
भावश्रुत ज्ञानरूप जिनशासननुं अनुभवन छे; एटले भावश्रुत ज्ञानरूप जिनशासन छे; आत्मानी अनुभूति
ते ज भाव जिनशासन छे.
आ संबंधे भावपाहुडमां भगवान श्री कुंदकुंदाचार्य देव नीचे प्रमाणे कहे छे:–
पुजादिषु व्रतसहितं पुण्यं हि जिनैशासने भणितम्।
मोह क्षोभ विहीनः परिणामः आत्मनः धर्मः।।
८३।।
अर्थ:–जिनशासनविषे जिनेन्द्र देवे एम कह्युं छे के– पूजादिक तथा व्रतसहितपणुं छे ते तो पुण्य छे, पण
मोह [मिथ्यादर्शन] अने क्षोभ [चारित्रमोह] रहित जे आत्मानुं परिणमन ते धर्म छे.
भावार्थ:–लौकिक तथा कोई अन्यमति कहे छे के, ‘जे पूजादिक शुभक्रिया तेने विषे अने व्रतक्रियासहित छे
ते जैनधर्म छे,” पण तेम नथी. जैनमतमां जिन भगवाने एम कह्युं छे के:–जे पूजादिक विषे अने व्रतसहित होय
ते तो पुण्य छे. त्यां पूजा पछी “ आदिक–अने ” ए शब्दथी भक्ति, वंदना, वैयावृत्य आदिक लेवां, ते तो देव–
गुरु–शास्त्र प्रत्ये थाय छे. वळी उपवास आदिक व्रत छे ते शुभक्रिया छे तेमां आत्माना रागसहित शुभ
परिणाम छे, ते वडे पुण्य कर्म निपजे छे तेथी तेने पुण्य कहे छे. तेनुं फळ स्वर्गादिक भोगनी प्राप्ति छे.
‘मोह अने क्षोभरहित आत्माना परिणाम’ कह्या; तेमां मोहनो अर्थ अतत्त्व श्रध्धान छे; वळी क्रोध,
मान, शोक, अरति, भय, जुगुप्सा ए छ द्वेष छे अने माया, लोभ, हास्य, रति, पुरुष–स्त्री के नपुंसक ए त्रण
विकार एम सात राग छे. ए तेर प्रकृतिना निमित्ते आत्माना ज्ञान–दर्शन स्वभाव विकारसहित
(मोहक्षोभरूप) चलाचल–व्याकुळ थाय छे, पण ते विकारथी रहित शुद्ध दर्शन ज्ञानरूप जे खरो भाव छे ते
आत्मानो धर्म छे, ए धर्मथी आगामी कर्मना आस्रव रोकातां संवर थाय छे अने पूर्वे बांधेला कर्मनी निर्जरा
थाय छे, संपूर्ण निर्जरा थतां मोक्ष प्रगटे छे. जेने सम्यग्दर्शन प्रगट्युं होय अने अंशे चारित्र मोह होय तेना
शुभ परिणामने उपचारथी धर्म कहेवाय छे.
[उपचारथी एटले खरेखर नहीं, पण अंशे शुध्ध भाव होय त्यारे
जे शुभभाव छे तेने अज्ञानीना शुभ