: वैशाख : २००० आत्मधर्म : ९५ :
भावथी जुदो पाडवा माटे निमित्त के उपचार कहेवाय छे.] पण जे केवळ शुभ परिणामने ज धर्म मानी संतुष्ट
छे तेने धर्मनी प्राप्ति नथी. शुभ करतां करतां शुद्ध परिणाम प्रगटशे एम माननारा विकार करतां करतां
अविकारपणुं थशे एम माने छे; अने तेथी ते भूल छे. ए प्रमाणे जैनशासननो उपदेश छे.
(जुओ अष्टपाहुड पानुं–२१९–२२०)
श्रध्धाति च प्रत्येति च रोचते च तथा पुनरपि स्पर्शति।
पुण्यं भोगनिमित्तं नहि तत् कर्म क्षय निमित्तम्।। ८४।।
अर्थ:–जे जीव पुण्यने धर्म जाणी श्रध्धान करे छे, वळी प्रतीति करे छे, वळी रुचि करे छे, वळी स्पर्शे छे ते
पुण्य भोगनुं कारण होवाथी स्वर्गादिक भोग पामे छे, पण पुण्य कर्मक्षयनुं कारण नथी ए प्रगट जाणो.
भावार्थ:–शुभक्रियारूप पुण्यने धर्म जाणी तेनुं श्रध्धान, ज्ञान, आचरण करे छे तेने पुण्य–कर्म–बंध
होवाथी ते वडे स्वर्गादि भोगनी प्राप्ति थाय छे, पण तेनाथी कर्मना क्षयरूप संवर, निर्जरा, मोक्ष थतां नथी.
भगवानो विहार
भगवान वीतराग होईने तेमने कांईपण ईच्छा होय नहीं. भगवानना सेवको ईन्द्रो वगेरे, भव्य
जीवोनां हित माटे तथा धर्मनी प्रभावना माटे भगवानने विहारनी प्रार्थना करे एवो तेमनो आचार छे. जे जे
जगोए लायक जीवो होय त्यां ईच्छा रहितपणे भगवाननो विहार थाय छे. ते मुजब आर्यदेशोमां भगवाननो
विहार थयो हतो.
राजगृहीना विपुलाचल पर भगवान पधारतां त्यां समोसरणनी रचना ईन्द्रे करी हती अने त्यां राजा
श्रेणीक वंदना तथा धर्मोपदेश श्रवण माटे गया हता.
श्रेणीक राजाए सम्यग्दर्शन पाम्या पछी सोळ भावना भावतां भगवान समीपे तीर्थंकरनामकर्म बांध्युं
हतुं. तेओने व्रत, संयम नियम कांई पण न हतुं–पण तेओ सम्यग्द्रष्टि हता ए लक्षमां राखवुं. आवती
चोवीशीमां तेओ पहेलांं तीर्थंकर थवानां छे;
ज्ञप्तिक्रियानी व्याख्या
ज्ञप्ति क्रिया:–ज्ञाननी विकार रहित निर्मळ क्रिया एटले ज्ञाननी एकाग्रता [–अर्थात् ज्ञान स्वभावी
आत्मामां पुण्य–पाप रहित ज्ञाननी एकाग्रता] ते ज्ञप्ति क्रिया छे.
करोतिक्रियानी व्याख्या
करोतिक्रिया:–जडनुं कर्तव्य मारुं, पुण्य–पापना भावनुं कर्तव्य मारुं, जडनी अवस्था मारा हाथमां छे एवी
जे मान्यता एटले के हुं जडनी क्रिया करी शकुं अने विकारी परिणाम मारां एवो अभिप्राय ते करोतिक्रिया छे.
नोट:–(१) जडनी अवस्था माराथी थाय छे एवो भाव अने पुण्य–पापना परिणाम मारां एवो भाव
अर्थात् करोतिक्रिया ज्ञानीने होती नथी, पण ज्ञप्तिक्रिया (ज्ञानक्रिया) होय छे.
(२) जीव परनुं कांई करी शकतो नथी तेथी परनी कोई क्रिया ते जीवनी क्रिया नथी.
भगवाने महावीरनुं उपनाम
श्री वर्धमान स्वामीनुं सम्यग्द्रष्टिपणुं तो आगला भवोथी चाल्युं आव्युं हतुं; तेवी द्रष्टि पूर्वक आत्मानी
स्थिरतामां लीन रहेवा माटे भगवान महान पुरुषार्थ करता हता. “पोताना पुरुषार्थ वगर धर्म थई शके नहि”
ए सिद्धांत भगवाने अमलमां मूकेलो होवाथी ईन्द्रो वगेरे भगवानना सेवको भगवानने ‘महावीर’ ना
उपनामथी कहेवा लाग्या, अने तेथी तेओ महावीर भगवानना नामथी आजे पण ओळखाय छे.
भगवानुं मोक्षगमन
आयुष्य पुरुं थतां भगवाननो आत्मा संपूर्ण शुध्ध थतां शरीर एकक्षेत्रावगाह संबंध बंध पड्यो; अने
आत्मा छूटो पडतां (वजन वगरनो होई) तेना ऊर्ध्वगमन स्वभावना कारणे लोकने अगे्र स्थित थयो.
भगवान कारतक वदी ०)) (गुजराती आसो वदी ०))) ना रोज वदी १४ ना पाछला भागमां प्रातःकाळमां
मुक्त थया. भगवानना निर्वाणनी आ खबर वीजळीनी माफक तुरत बधे फेलाई गई थोडी ज वारमां देवेन्द्रो,
राजाओ, साधारण देवो अने मनुष्योना समूह भक्तिथी गद्गद् थई निर्वाण स्थान (पावापुरी) मां पहोंच्या.
ते वखते प्रातःकाळमां कांईक अंधारूं होवाथी भक्तिथी रत्नना तथा घी वगेरेना दीवाओ करवामां आव्या हता.