Atmadharma magazine - Ank 006
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 21 of 29

background image
[मंदाक्रान्ता]
[शार्दुलविक्रीडित]
[अनुष्टुप]
: १०० : आत्मधर्म : वैशाख : २०००
तेने अनंत भव होय ज नहि, पुरुषार्थीने भव स्थिति आदि कांई नडतुं नथी, तेने पांचे समवाय आवी मळयां
छे.’ ‘पुरुषार्थ, पुरुषार्थ ने पुरुषार्थ’ ए महाराजश्रीनो जीवनमंत्र छे.
दीक्षाना वर्षो दरम्यान महाराजश्रीए श्वेतांबर शास्त्रोनो खूब मननपूर्वक अभ्यास कर्यो. भगवती सूत्र
तेओश्रीए १७ वार वांच्युं छे. दरेक कार्य करतां तेमनुं लक्ष्य सत्यना शोधन प्रति ज रहेतुं.
सं. १९७८ मां श्री वीरशासनना उद्धारनो, अनेक मुमुक्षुओना महान पुण्योदयने सूचवतो एक पवित्र
प्रसंग बनी गयो. विधिनी कोई धन्य पळे श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यविरचित श्री समयसार नामनो महान ग्रंथ
महाराजश्रीना हस्तकमळमां आव्यो. समयसार वांचतां ज तेमना हर्षनो पार न रह्यो. जेनी शोधमां तेओ हता
ते तेमने मळी गयुं. श्री समयसारजीमां अमृतनां सरोवर छलकातां महाराजश्रीना अंतरनयने जोयां. एक पछी
एक गाथा वांचता महाराजश्रीए घुंटडा भरी भरीने ते अमृत पीधुं. ग्रंथाधिराज समयसारजीए महाराजश्री
पर अपूर्व, अलौकिक, अनुपम उपकार कर्यो अने तेमना आत्मानंदनो पार न रह्यो. महाराजश्रीना
अंतर्जीवनमां परम पवित्र परिवर्तन थयुं. भूली पडेली परिणतिए निज घर देख्युं. उपयोग झरणानां वहेण
अमृतमय थयां. जिनेश्वरदेवना सुनंदन गुरुदेवनी ज्ञानकळा हवे अपूर्व रीते खीलवा लागी.
सं. १९९१ सुधी महाराजश्रीए स्थानकवासी संप्रदायमां रही बोटाद, वढवाण, अमरेली, पोरबंदर,
जामनगर, राजकोट वगेरे गामोमां चातुर्मास कर्यां अने शेष काळमां सेंकडो नानांमोटां गामोने पावन कर्यां.
काठियावाडना हजारो माणसोने महाराजश्रीना उपदेश प्रत्ये बहुमान प्रगट्युं. अंतरात्मधर्मनो उद्योत घणो थयो.
जे गाममां महाराजश्रीनुं चातुर्मास होय त्यां बहारगामनां हजारो भाईबेनो दर्शनार्थे जतां अने तेमनी
अमृतवाणीनो लाभ लेतां. महाराजश्री श्वेतांबर संप्रदायमां रह्या होवाथी व्याख्यानमां मुख्यत्वे श्वेतांबर शास्त्रो
वांचता (जो के छेल्ला वर्षोमां समयसारादि पण सभा वच्चे वांचता हता) परंतु ते शास्त्रोमांथी, पोतानुं हृदय
अपूर्व होवाथी, अन्य व्याख्याताओ करतां जुदी ज जातना अपूर्व सिद्धांतो तारवता, विवादना स्थळोने छेडता
ज नहि. गमे ते अधिकार तेओश्री वांचे पण तेमां कहेली हकीकतोने अंतरना भावो साथे मींढवीने तेमांथी एवा
अलौकिक आध्यात्मिक न्यायो काढता के जे क्यांय सांभळवा न मळ्‌या होय. ‘जे भावे तीर्थंकरनामकर्म बंधाय ते
भाव पण हेय छे........शरीरमां रोमे रोमे तीव्र रोग थवा ते दुःख ज नथी, दुःखनुं स्वरूप जुदुं छे.........व्याख्यान
सांभळी घणा जीवो बूझे तो मने घणो लाभ थाय एम माननार व्याख्याता मिथ्याद्रष्टि छे..........आ दुःखमां
समता नहि राखुं तो कर्म बंधाशे–एवा भावे समता राखवी ते पण मोक्षमार्ग नथी..........पांच महाव्रत पण
मात्र पुण्यबंधनां कारण छे. ’ आवा हजारो अपूर्व न्यायो महाराजश्री व्याख्यानमां अत्यंत स्पष्ट रीते लोकोने
समजावता. दरेक व्याख्यानमां महाराजश्री सम्यग्दर्शन पर अत्यंत भार मूकता. तेओश्री अनेक वार कहेता के–
‘शरीरनां चामडां उतरडीने खार छांटनार उपर पण क्रोध न कर्यो–
– : गुरुदेवना उपकार : –
ज्यां जोउं त्यां नजर पडतां राग ने द्वेष हा! हा!
ज्यां जोउं त्यां श्रवण पडतां पुण्य ने पाप गाथा;
जिज्ञासुने शरण स्थळ क्यां? तत्त्वनी वात क्यां छे?
पूछे कोने पथ पथिक ज्यां आंधळा सर्व पासे.
एवा ए कळिकाळमां जगतनां कंई पुण्य बाकी हतां.
जिज्ञासु हृदयो हतां तलसतां सद्वस्तुने भेटवा;
एवा कंईक प्रभावथी, गगनथी ओ कहान तुं ऊतरे,
अंधारे डूबता अखंड सत्ने तुं प्राणवंतु करे
जेनो जन्म थतां सहु जगतनां पाखंड पाछां पडे,
जेनो जन्म थतां मुमुक्षु हृदयो उल्लासथी विकसे;
जेना ज्ञानकटाक्षथी उदय ने चैतन्य जूदां पडे,
ईन्द्रो ए जिनसुतना जनमने आनंदथी उजवे.
डुबेलुं सत्य अंधारे आवतुं तरी आखरे;
फरी ए वीर–वाक्योमां प्राण ने चेतना वहे.