Atmadharma magazine - Ank 006
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २००० आत्मधर्म : १०१ :
एवां व्यवहार चारित्रो आ जीवे अनंतवार पाळ्‌यां छे, पण सम्यग्दर्शन एक वार पण प्राप्त कर्युं नथी. लाखो
जीवोनी हिंसानां पाप करतां मिथ्यादर्शननुं पाप अनंतगणुं छे समकित सहेलुं नथी. लाखो करोडोमां कोईक
विरल जीवने ज ते होय छे. समकिती जीव पोतानो निर्णय पोते ज करी शके छे. समकिती आखा ब्रह्मांडना
भावोने पी गयो होय छे. आजकाल तो सौ पोत पोताना घरनुं समकित मानी बेठा छे. समकितीने तो मोक्षना
अनंत सुखनी वानगी प्राप्त थई होय छे. समकितीनुं ते सुख, मोक्षना सुखना अनंतमा भागे होवा छतां,
अनंत छे. ’ अनेक रीते, अनेक दलीलोथी, अनेक प्रमाणोथी, अनेक द्रष्टांतोथी समकितनुं अद्भुत महात्म्य
तेओश्री लोकोने ठसावता. महाराजश्रीनी जैन धर्म परनी अनन्य श्रध्धा, आखुं जगत न माने तोपण पोतानी
मान्यतामां पोते एकला टकी रहेवानी तेमनी अजब द्रढता अने अनुभवना जोरपूर्वक नीकळती तेमनी
न्यायभरेली वाणी भलभला नास्तिकोने विचारमां नाखी देती अने केटलाकने आस्तिक बनावी देती. ए
केसरीसिंहनो सिंहनाद पात्र जीवोना हृदयना ऊंडाणने स्पर्शी तेमना आत्मिक वीर्यने उछाळतो. सत्यना जोरे
आखा जगतना अभिप्रायो सामे झुझता ए अध्यात्मयोगीनी गर्जना जेमणे सांभळी हशे तेमना कानमां हजु
तेनो रणकार गुंजतो हशे.
आवी अद्भुत प्रभावशाळी अने कल्याणकारिणी वाणी अनेक जीवोने आकर्षे ए स्वाभाविक छे.
साधारण रीते उपाश्रयमां कामधंधाथी निवृत्ति थयेला वृद्ध माणसो मुख्यत्वे आवे छे, परंतु कानजी महाराज
ज्यां पधारे त्यां तो युवानो, केळवाएला माणसो, वकीलो, दाक्तरो, शास्त्रना अभ्यासीओ वगेरेथी उपाश्रय
ऊभराई जतो. मोटा गामोमां महाराजश्रीनुं व्याख्यान प्राय: उपाश्रयमां नहि पण कोई विशाळ जग्यामां
राखवुं पडतुं. दिवसे दिवसे तेमनी ख्याति वधती ज गई. व्याख्यानमां हजारो माणसो आवतां. आसपासनां
गामोमांथी पण माणसो आवतां. आगळ जग्या मळे ए हेतुथी सेंकडो लोको कलाक दोढदोढ कलाक वहेला
आवीने बेसी जता. कोईक जिज्ञासुओ व्याख्यानोनी टुंकी नोंध करी लेता. जे गाममां महाराजश्री पधारे ते
गाममां श्रावकोना घरे घरे धर्मनी चर्चा चालती अने सर्वत्र धर्मनुं ज वातावरण जामी रहेतुं. शेरीओमां
श्रावकोनां टोळां धर्मनी वातो करतां नजरे पडतां, सवार, बपोर ने सांज उपाश्रयना रस्ते जनसमुदायनी भारे
अवरजवर रह्या करती. उपाश्रयमां लगभग आखो दिवस तत्त्वज्ञानचर्चानी शीतळ लहरीओ छूटती. केटलांक
मुमुक्षुओनुं तो वेपारधंधामां चित्त चोंटतुं नहि ने महाराजश्रीनी शीतळ छांयामां घणो खरो वखत गाळता. ए
रीते गामोगाम अनेक सुपात्र जीवोना हृदयमां महाराजश्रीए सत्नी रुचिना बीज रोप्यां. महाराजश्रीना
वियोगमां पण ते मुमुक्षुओ महाराजश्रीना बोध विचारता, भवभ्रमण केम टळे सम्यक्त्व केम प्राप्त थाय तेनी
झंखना करता, कोई वार भेगा मळीने तत्त्वचर्चा करता, महाराजश्रीए कहेलां पुस्तको वांचता विचारता.
स्थानकवासी साधुओमां महाराजश्रीनुं स्थान अजोड हतुं. ‘कानजी महाराज शुं कहे छे’–ए जाणवा
साधु–साध्वीओ उत्सुक रहेतां. केटलाक
अध्यात्म मूर्ति सद्गुरुदेवने
(हरिगीत)
तुज पादपंकज ज्यां थयां ते देशने पण धन्य छे, ए गाम–पुरने धन्य छे, ए मात कुळ ज वन्द्य छे;
तारां कर्यां दर्शन अरे! ते लोक पण कृतपुण्य छे, तुज पादनी स्पर्शाई एवी धूलिने पण धन्य छे,
तारी मति तारी गति, चारित्र लोकातीत छे, आदर्श साधु तुं थयो, वैराग्य वचनातीत छे.
वैराग्य मूर्ति, शान्तमुद्रा, ज्ञाननो अवतार तुं, ओ देवना देवेन्द्र व्हाला! गुण तारा शुं कथुं?
अनुभव महीं आनंद तो सापेक्ष द्रष्टि तुं धरे, दुनिया बिचारी बावरी तुज दिल देखे क्यां अरे?
तारा हृदयना तारमां रणकार प्रभुना नामना, ए नाम ‘सोहं’ नामनुं, भाषा परा ज्यां कामना.
अध्यात्मनी वातो करे, अध्यात्मनी द्रष्टि धरे, निज देह–अणु अणुमां अहो! अध्यात्मरस भावे भरे;
अध्यात्ममां तन्मय बनी अध्यात्मने फेलावतो, काया अने वाणी–हृदय, अध्यात्ममां रेलावतो.
ज्यां ज्यां तमारी द्रष्टि त्यां आनंदना उभरा वहे, छाया छवाये शान्तिनी तुं शान्त मूर्ते! ज्यां रहे;
अध्यात्म मूर्ति, शान्त मुद्रा, ज्ञाननो अवतार तुं, ओ कहानदेव देवेन्द्र व्हाला! गुण तारा शुं कथुं?