उत्तर:–आत्माना (स्वरूपना) नथी; ते थाय छे आत्मामां, कंई जडमां थतां नथी; पण ते जडना
प्रश्न:–ज्ञाननुं स्वरूप शुं?
उत्तर:–जाणवुं ते. (जाणवामां रागद्वेष ते ज्ञाननुं स्वरूप नथी) ‘हुं आने जाणुं छुं’ एम बोलाय पण
उत्तर:–शक्तिथी असंग छे, पण वर्तमान (पर्यायमां) संगनी योग्यता छे.
आत्मा जगतनी एक स्वतंत्र वस्तु छे; तेनो ज्ञान गुण अनादि अनंत छे; तेनी अनादिथी विकारी
महाराजश्रीए घणां वर्षो सुधी स्थानकवासी संप्रदायमां रही आत्मधर्मनो खूब प्रचार कर्यो अने साधु
काठियावाडना सोनगढ नामना नाना गाममां त्यांना एक गृहस्थना खाली मकानमां सं. १९९१ ना चैत्र सुद
१३ ने मंगळवारने दिने ‘परिवर्तन, कर्युं–स्थानकवासी संप्रदायनुं चिह्न जे मुहपति तेनो त्याग कर्यो. संप्रदाय
त्यागनाराओने केवी केवी अनेक महाविपत्तिओ पडे छे, अने तद् उपरांत बाळ जीवो तरफथी अज्ञानने लीधे
महात्माए तेनी कांई परवा करी नहि. संप्रदायना हजारो श्रावकोनां हृदयमां महाराजश्री अग्रस्थाने बिराजता
हता तेथी घणा श्रावकोए महाराजश्रीने परिवर्तन नहि करवा अनेक प्रकारे प्रेमभावे विनव्या हता. परंतु जेना
रोमे रोममां वीतरागप्रणीत यथार्थ सन्मार्ग प्रत्ये भक्ति ऊछळती हती ते महात्माए प्रेमभरी विनवणीनी
असर हृदयमां झीली, रागमां तणाई, सत्ने केम गौण थवा दे? सत् प्रत्येनी परम भक्तिमां सर्व प्रकारनी
प्रतिकूळतानो भय ने अनुकूळतानो राग अत्यंत गौण थई गया. जगतथी तद्न निरपेक्षपणे, हजारोनी मानव
मेदनीमां गर्जतो सिंह सत्ने खातर सोनगढना एकांत स्थळमां जईने बेठो.
परम भक्त) जीवणलालजी महाराज साथे अने कोई दर्शनार्थे आवेला बे चार मुमुक्षुओ साथे स्वाध्याय, ज्ञान–
ध्यान वगेरेमां लीन थयेला महाराजश्रीने जोतां हजारोनी मानवमेदनी स्मृतिगोचर थती अने ते जाहोजलालीने
सर्प कंचु कवत् छोडनार महात्मानी सिंहवृत्ति, निरीहता अने निर्मानता आगळ हृदय नमी पडतुं.
दरेक स्थानकवासीना हृदयमां पेसी गया हता. महाराजश्री पाछळ काठियावाड घेलुं बन्युं हतुं. तेथी ‘महाराजश्रीए
सोनगढमां शुं चाले छे ते जोवा आवता, पण महाराजश्रीनुं परम पवित्र जीवन अने अपूर्व उपदेश सांभळी
तेओ ठरी जता, तूटेलो भक्तिनो प्रवाह फरीने वहेवा लागतो. कोई कोई पश्चात्ताप करता के ‘महाराज! आपना
विषे तद्न कल्पित वातो सांभळी अमे आपनी घणी आशातना करी छे, घणां कर्म बांध्या छे. अमने