Atmadharma magazine - Ank 006
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: १०२ : आत्मधर्म : वैशाख : २०००
पु. गुरुदेवनी रात्रिर्चामांथी मेळवेलुं
प्रश्न:–रागद्वेष आत्माना नथी त्यारे कोनां छे?
उत्तर:–आत्माना (स्वरूपना) नथी; ते थाय छे आत्मामां, कंई जडमां थतां नथी; पण ते जडना
संयोगथी थता होवाथी तेने जडना कह्या छे.
ज्ञानमां (ज्ञान करवामां) पोते विकार भाव करे छे–पण जडमां कांई विकार (रागद्वेष) नथी थतां.
प्रश्न:–ज्ञाननुं स्वरूप शुं?
उत्तर:–जाणवुं ते. (जाणवामां रागद्वेष ते ज्ञाननुं स्वरूप नथी) ‘हुं आने जाणुं छुं’ एम बोलाय पण
खरेखर परने नहीं पण पोताना ज्ञाननी पर्यायने जाणे छे.
चेतन (स्वलक्षचूकीने) जड पक्षमां लक्ष करे छे त्यारे रागद्वेष थाय छे एटले ते रागद्वेष जड पक्षमां जाय
छे चेतन जड तरफ लक्ष करे छे के “मने आनाथी फायदो के नुकसान थशे” त्यारे रागद्वेष थाय छे.
प्रश्न:–चेतन तो असंग स्वभावी छे ने परसंग (परलक्ष) केम करे?
उत्तर:–शक्तिथी असंग छे, पण वर्तमान (पर्यायमां) संगनी योग्यता छे.
आत्मा जगतनी एक स्वतंत्र वस्तु छे; तेनो ज्ञान गुण अनादि अनंत छे; तेनी अनादिथी विकारी
अवस्था छे; ज्यारे साचुं भान थाय (करे) त्यारे ते विकारी अवस्था टळे.
साधु–साध्वीओ महाराजश्रीनां व्याख्याननी नोंध मुमुक्षु भाईबेनो पासेथी मेळवी वांची लेतां.
महाराजश्रीए घणां वर्षो सुधी स्थानकवासी संप्रदायमां रही आत्मधर्मनो खूब प्रचार कर्यो अने साधु
तथा श्रावकोने विचारता करी मूकया.
महाराजश्री सं. १९९१ सुधी स्थानकवासी संप्रदायमां रह्या. परंतु अंतरंग आत्मामां वास्तविक
वस्तुस्वभाव अने वास्तविक निर्ग्रंथमार्ग घणां वखतथी सत्य लागतो होवाथी तेओश्रीए योग्य समये
काठियावाडना सोनगढ नामना नाना गाममां त्यांना एक गृहस्थना खाली मकानमां सं. १९९१ ना चैत्र सुद
१३ ने मंगळवारने दिने ‘परिवर्तन, कर्युं–स्थानकवासी संप्रदायनुं चिह्न जे मुहपति तेनो त्याग कर्यो. संप्रदाय
त्यागनाराओने केवी केवी अनेक महाविपत्तिओ पडे छे, अने तद् उपरांत बाळ जीवो तरफथी अज्ञानने लीधे
तेमना पर केवी अघटित निंदानी झडीओ वरसे छे, तेनो तेमने संपूर्ण ख्याल हतो पण ते नीडर ने निस्पृह
महात्माए तेनी कांई परवा करी नहि. संप्रदायना हजारो श्रावकोनां हृदयमां महाराजश्री अग्रस्थाने बिराजता
हता तेथी घणा श्रावकोए महाराजश्रीने परिवर्तन नहि करवा अनेक प्रकारे प्रेमभावे विनव्या हता. परंतु जेना
रोमे रोममां वीतरागप्रणीत यथार्थ सन्मार्ग प्रत्ये भक्ति ऊछळती हती ते महात्माए प्रेमभरी विनवणीनी
असर हृदयमां झीली, रागमां तणाई, सत्ने केम गौण थवा दे? सत् प्रत्येनी परम भक्तिमां सर्व प्रकारनी
प्रतिकूळतानो भय ने अनुकूळतानो राग अत्यंत गौण थई गया. जगतथी तद्न निरपेक्षपणे, हजारोनी मानव
मेदनीमां गर्जतो सिंह सत्ने खातर सोनगढना एकांत स्थळमां जईने बेठो.
महाराजश्रीए जेमां परिवर्तन कर्युं ते मकान वसतिथी अलग होवाथी बहु शांत हतुं. दूरथी आवता
माणसनो पगरव क्यांयथी संभळातो. थोडा महिनाओ सुधी आवा निर्जन स्थळमां मात्र (महाराजश्रीना
परम भक्त) जीवणलालजी महाराज साथे अने कोई दर्शनार्थे आवेला बे चार मुमुक्षुओ साथे स्वाध्याय, ज्ञान–
ध्यान वगेरेमां लीन थयेला महाराजश्रीने जोतां हजारोनी मानवमेदनी स्मृतिगोचर थती अने ते जाहोजलालीने
सर्प कंचु कवत् छोडनार महात्मानी सिंहवृत्ति, निरीहता अने निर्मानता आगळ हृदय नमी पडतुं.
जे स्थानकवासी संप्रदाय कानजीस्वामीना नामथी गौरव लेतो ते संप्रदायमां महाराजश्रीना ‘परिवर्तन’
थी भारे खळभळाट थाय ए स्वाभाविक छे. परंतु महाराजश्री १९९१ नी साल सुधीमां काठियावाडमां लगभग
दरेक स्थानकवासीना हृदयमां पेसी गया हता. महाराजश्री पाछळ काठियावाड घेलुं बन्युं हतुं. तेथी ‘महाराजश्रीए
जे कर्युं हशे ते समजीने ज कर्युं हशे.’ एम विचारीने धीमे धीमे घणा लोको तटस्थ थई गया. केटलाक लोको
सोनगढमां शुं चाले छे ते जोवा आवता, पण महाराजश्रीनुं परम पवित्र जीवन अने अपूर्व उपदेश सांभळी
तेओ ठरी जता, तूटेलो भक्तिनो प्रवाह फरीने वहेवा लागतो. कोई कोई पश्चात्ताप करता के ‘महाराज! आपना
विषे तद्न कल्पित वातो सांभळी अमे आपनी घणी आशातना करी छे, घणां कर्म बांध्या छे. अमने