दशानो सुधास्यंदी स्वानुभूतिस्वरूप पवित्र अंश पोताना आत्मामां प्रगट करीने सद्गुरुदेव विकसित ज्ञानपर्याय
द्वारा शास्त्रमां रहेलां गहन रहस्यो उकेली, मुमुक्षुने समजावी अपार उपकार करी रह्या छे. सेंकडो शास्त्रोना
अभ्यासी विद्वानो पण गुरुदेवनी वाणी सांभळी उल्लास आवी जतां कहे छे; ‘गुरुदेव! अपूर्व आपना
वचनामृत छे; तेनुं श्रवण करतां अमने तृप्ति ज थती नथी. आप गमे ते वात समजावो तेमांथी अमने नवुं नवुं
ज जाणवानुं मळे छे. नव तत्त्वनुं स्वरूप के उत्पाद–व्यय–ध्रौव्यनुं स्वरूप, स्याद्वादनुं स्वरूप ने सम्यक्त्वनुं
स्वरूप, निश्चयव्यवहारनुं स्वरूप के व्रतनियमतपनुं स्वरूप, उपादान–निमित्तनुं स्वरूप के साध्य–साधननुं स्वरूप,
द्रव्यानुयोगनुं स्वरूप के चरणानुयोगनुं स्वरूप गुणस्थाननुं स्वरूप के बाधक–साधकभावनुं स्वरूप, मुनिदशानुं
स्वरूप के केवळज्ञाननुं स्वरूप–जे जे विषयनुं स्वरूप आपना मुखे अमे सांभळीए छीए तेमां अमने अपूर्व
भावो द्रष्टिगोचर थाय छे. अमे शास्त्रमांथी काढेला अर्थो तद्न ढीला, जड–चेतनना भेळसेळवाळा, शुभने
शुद्धमां खतवनारा, संसार भावने पोषनारा, विपरीत अने न्यायविरुद्ध हता; आपना अनुभवमुद्रित अपूर्व
अर्थो टंकणखार जेवा–शुद्ध सूवर्ण जेवा, जड–चेतनना फडचा करनारा, शुभ ने शुद्धनो स्पष्ट विभाग करनारा,
मोक्षभावने ज पोषनारा, सम्यक् अने न्याययुक्त छे. आपना शब्दे शब्दे वीतरागदेवनुं हृदय प्रगट थाय छे.
अमे वाक्ये वाक्ये वीतरागदेवनी विराधना करता हता. अमारुं एक वाक्य पण साचुं नहोतुं. शास्त्रमां ज्ञान
नथी, ज्ञानपर्यायमां ज्ञान छे–ए वातनो अमने हवे साक्षात्कार थाय छे. शास्त्रोए गायेलुं जे सद्गुरुनुं महात्म्य
ते हवे अमने समजाय छे. शास्त्रोनां ताळां उघाडवानी चावी वीतराग देवे सद्गुरुने सोंपी छे. सद्गुरुनो उपदेश
पाम्या विना शास्त्रोनो उकेल थवो अत्यंत कठिन छे.’
ओछामां ओछो प्रयोग करीने समजावे छे के सामान्य मनुष्यने पण ते सहेलाईथी समजाय छे. अत्यंत गहन
विषयने पण अत्यंत सुगम रीते प्रतिपादित करवानी गुरुदेवमां विशिष्ट शक्ति छे. वळी महाराजश्रीनी
व्याख्यानशैली एटली रसमय छे के जेम सर्प मोरली पाछळ मुग्ध बने छे तेम श्रोताओ मंत्रमुग्ध बनी जाय छे;
समय क्यां पसार थई जाय छे तेनुं भान पण रहेतुं नथी. स्पष्ट अने रसमय होवा उपरांत महाराजश्रीनुं
प्रवचन करतां अध्यात्ममां एवा तन्मय थई जाय छे, परमात्मदशा प्रत्येनी एवी भक्ति तेमना मुख पर देखाय
छे के श्रोताओने तेनी असर थया विना रहेती नथी. अध्यात्मनी जीवंत मूर्ति गुरुदेवना देहना अणुए
अणुमांथी जाणे अध्यात्मरस नीतरे छे. ते अध्यात्ममूर्तिनी मुखमुद्रा, नेत्रो, वाणी, हृदय बधां एकतार थई
अध्यात्मनी रेलंछेल करे छे अने मुमुक्षुओनां हृदयो ए अध्यात्मरसथी भिंजाई जाय छे.
पुरुष कोई जुदी जातनो छे, जगतथी ए कांईक जुदुं कहे छे, अपूर्व कहे छे. एना कथन पाछळ कोई अजब द्रढता
ने जोर छे. आवुं क्यांय सांभळ्युं नथी. ’ महाराजश्रीना व्याख्यानमांथी अनेक जीवो पोतपोतानी पात्रता
अनुसार लाभ मेळवी जाय छे. केटलाकने सत् प्रत्ये रुचि जागे छे. कोई कोईने सत्समजणना अंकुर फुटे छे अने
कोई विरल जीवोनी तो दशा ज पलटाई जाय छे.
संसारतप्त प्राणीओ त्यां परम विश्रांति पामे छे अने संसारनां दुःखो मात्र कल्पनाथी ज ऊभां करेलां तेमने
भासवा मांडे छे. जे