Atmadharma magazine - Ank 006
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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परम पूज्य सद्गुरुदेव,
ए धन्यदिनने आजे ५४ वर्ष पूरां थयां के जे दिने
अम अनाथोना नाथनो जन्म थयो. आजे आप पप मां
वर्षमां प्रवेश करो छो. आजना सुप्रभाते अम सौ शिष्य
जनोनी अमारा ए तरण तारणने भावपूर्वकनी त्रिकाळ
वंदना हो.
आपश्रीनो अमारा उपर अनहद उपकार छे, घोर
अंधकारमांथी आप अमोने सूर्य समा उज्वळ अने चंद्र समा
शीतळ प्रकाशमां लाव्या छो. धर्मबुद्धिए आपना परिचयमां
आवेला अनेक मुमुक्षु जीवोना आप उद्धारक निवडया छो.
कृपाळुदेव! जगतमां बूडतां सत्यने उपर लावी
विश्वधर्म अने तेनुं स्वरूप शुं छे ते आपे स्पष्टपणे बाळक
पण समजी शके तेवी घरगथ्थु, सरळ अने मधुरी भाषामां
बतावी जगत पासे धर्युं छे.
दुःख, दुःख अने दुःखना पोकारो करती, सुखने माटे ज्यां त्यां आथडती मानव जातने आप
शाश्वत सुखनो राजमार्ग बतावी रह्या छो, कदी न सांभळेली, न गळे उतरेली एवी अपूर्व वाणी
आप संभळावी रह्या छो.
प्रभु! अनंत ज्ञानीओए जगतना जीवोने मरता बचाववा माटे आपेली संजीवनीनी आप
ल्हाणी करी रह्या छो. परंतु खामी छे अमारा पुरुषार्थनी के अमो ए अमृतने पुरेपूरूं झीली नथी
शकतां. छतां गुरुदेव! आप करुणा भीना हृदये अम बाळ जीवोने ए ज्ञान सरिता दर्शावी रह्या छो
ते माटे अमो सदैव आपना ऋणी छीए.
आजना आ सुभागी दिने आज सुधीमां आपनी कंई ए अशातना थई होय तो क्षमा
याचीए छीए अने जुग जुग जीवी ए सनातन जैन धर्मनी प्रभावना करो एम प्रार्थीए छीए.
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजी स्वामीए विहार करतां (राजकोट परा) लाखाणी
भुवनमां आपेलो उपदेश
आत्मा स्वतंत्र वस्तु छे. अनादि अनंत शुध्ध वस्तु छे. मात्र वर्तमान वर्तती क्षणीक
अवस्थामां रागद्वेष छे ते त्रिकाळ स्वभावमां नथी; वस्तु निरपेक्ष छे. पर्यायमां परनी अपेक्षाए
थता राग द्वेष ते स्वरूपमां नथी; आत्मा अने दरेक वस्तु स्वतंत्र–परथी नास्तिरूप अने स्वथी
अस्तिरूप छे; आ रीते वस्तुने जाण्या विना–श्रध्धा कर्या विना–कदी पण स्वतंत्र सुखदशा कोईने
प्रगटी नथी, प्रगटती नथी अने प्रगटशे नहि. आ अनंत सिध्ध भगवंतोए (सर्वज्ञ भगवानोए)
अने त्रणे काळना ज्ञानीओए कहेली वात ते जगतने मान्ये ज छूटको छे.
आत्मा वस्तु स्वतंत्र छे. ‘स्वथी अस्ति’ ते स्वभावे– निश्चय छे. ‘परथी नास्ति’ ते
व्यवहार छे केमके तेमां परनी अपेक्षा आवे छे. फागण वद ३
• शाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक •
वष १ अक ६ : वशख २०
आत्मधर्म