: जेठ : २००० आत्मधर्म : ११७ :
अवलंबन नथी एवा साचा भानथी ते अज्ञान पोते ज टाळी शके छे, अने ए ज सम्यक्त्वनो उपाय छे.
सम्यक्दर्शन वगर व्रत–तप पण होई शके नहीं.
धर्मनी अपूर्वता
आत्मानो स्वभाव शुं, स्व शुं, पर शुं, निमित्त शुं तेनुं पहेलामां पहेलांं सम्यग्दर्शन माटे ज्ञान करवुं
पडशे. वस्तु स्वभावनो यथार्थ ख्याल आवतां अज्ञाननुं टळवुं तेज धर्म छे. धर्म आत्मानी चीज छे. ते केम न
समजाय? आ समजवुं तेज अपूर्व अने तेज वर्तमान साचो पुरुषार्थ छे. मोटो अमलदार होय के मोटो पगार
होय ते बधुं पूर्वनां पुण्यनुं फळ छे, तेमां वर्तमान डहापण चालतुं नथी–तथा ते अपूर्व नथी. अपूर्व तो अनंत
काळथी नहीं करेलुं आत्मवस्तुनुं भान करवुं तेज छे.
मनुष्यपणामां आज कर्तव्य छे.
अरेरे! आत्मा शुं वस्तु छे? क्यां मारो धर्म थाय अने अधर्म केम थाय छे! तेनुं ज्यां भान न मळे त्यां
उद्धारनां टाणां शां? आ दुर्लभ मनुष्य देह तेमां जो आत्म वस्तु शुं ते समजवानी रुचि नहीं तो मरण टाणे
कोनां शरण?
आ ऊपदेश अज्ञान टाळवा माटे छे.
आ बधुं जे ज्ञानी थई गया तेमने नथी कहेवातुं, पण अज्ञानी जेने आत्माना स्वभावनुं भान नथी–
धर्मनी खबर नथी तेने स्वरूप समजाववा कहेवाय छे. भगवान थई गया तेनी वात नथी, पण जेने भगवान
थवुं छे तेनी वात छे. सम्यग्दर्शन प्रगटाववानी पहेली ज वात छे.
समजणन फळ
यथार्थ भानवडे ज्यां स्वावलंबी स्वभाव जाण्यो त्यां प्रथम जे परने आधारे गुण मानतो ते अनंत
संसारनुं मूळ–अज्ञान तेने वमी नांख्युं–उलटी करी नांखी. जे वमी नांख्युं तेनो फरी आदर केम होय! एटले के
अज्ञान फरी आववानुं नथी. पण अज्ञाननुं वमन कोने थाय? के जेने आत्मामां विकार मात्र मददगार नथी
एम स्वभावनी वात बेसाडी तेने ज अज्ञान वमी जाय छे. स्वभावनुं भान थया पछी सर्वत्र अत्यंत
निरावलंबी थयो छे, अवलंबन मात्र निर्मळ स्वभावनुं ज छे. आ रीते समस्त अन्य भावोना परिग्रहथी
शून्यपणाने लीधे जेणे समस्त अज्ञानने वमी नांख्युं छे एवो सर्वत्र अत्यंत निरावलंब थईने नियत टंकोत्कीर्ण
एक ज्ञायकभाव रहे तो साक्षात् विज्ञानधन आत्माने अनुभवे छे.
मुक्त थवानो उपाय
आ रीते हुं पूर्ण स्वरूप, साक्षात् ज्ञान स्वरूप भगवान आत्मा छुं तेनी प्रतीति अने एकाग्रता तेनुं
नाम धर्म, अने ते ज अनंत काळना जन्म मरण टाळवानो उपाय छे; अने एक बे भवमां ज केवळ ज्ञान
प्रगटावीने सिद्ध थवानो उपाय ते आ ज छे. आ सिवाय मुक्तिनो–धर्मनो बीजो कोई उपाय नथी.
तमारी नकल पांचने वंचावो
निश्चय व्यवहारनुं स्वरूप
१ निश्चय–यथार्थ भाव व्यवहार–अयथार्थ भाव २ निश्चय–स्वभाविकभाव व्यवहार–निमित्ताधिकभाव
३ निश्चय–सत्यार्थ व्यवहार–असत्यार्थ ४ निश्चय–त्रिकाळीभाव व्यवहार–क्षणिकभाव
प निश्चय–ध्रुवभाव व्यवहार–उत्पन्नध्वंसीभाव
६ निश्चय–त्रिकाळ टके तेवो भाव व्यवहार–क्षणमात्र टके तेवो भाव
७ निश्चय–स्वलक्षीभाव व्यवहार–परलक्षीभाव ८ निश्चय–खरेखरूं स्वरूप. व्यवहार–कथन मात्र स्वरूप
९ निश्चय–स्वद्रव्याश्रित. व्यवहार–संयोगाश्रित
१० निश्चय–बीजाना भावने बीजानो कहेतो नथी–पण पोताना भावने ज पोतानो कहे छे. द्रव्यना आश्रये
होवाथी जीवना स्वभाविक भावने अवलंबे छे.
व्यवहार– औपाधिक भावने अवलंबतो होवाथी बीजाना भावने बीजानो कहे छे.
हवे विचारो के उपर जे अर्थो आव्या तेमांथी निश्चय आश्रय करवा लायक छे? के व्यवहार आश्रय
करवा लायक छे? जे जे आकुळता थाय छे ते ते व्यवहारना आश्रये थाय छे; जे जे निराकुळता थाय छे ते ते
निश्चयना आश्रये थाय छे, एम विचारकने लाग्या वगर रहेशे नहीं.