: जेठ : २००० आत्मधर्म : १२१ :
वाळा शरीररूप अवस्था ‘होय’ छे, पण ते आत्माने मददगार नथी के आत्मा तेनो (जडनी अवस्थानो) कर्ता नथी.
‘होय’ अने ‘जरूर पडे’ एमां मोटो फेर छे. केवळज्ञान वखते वृषभनाराचसंहनन होय एम कही
शकाय,’ पण ‘केवळ ज्ञान वखते वृषभनाराचसंहनननी जरूर पडे’ एम कही शकाय नहीं. जेम वीतराग दशा
थया पहेलांं राग होय खरो, पण वीतराग दशा थवा माटे ते राग मददगार नथी. नीचली दशामां राग होय
खरो छतां ते वीतरागतामां मददगार नथी, तेम केवळज्ञान वखते वृषभनाराचसंहनन होय खरूं पण ते
केवळज्ञानमां मददगार नथी.
प्रश्न:– आत्माने केवळज्ञान के मोक्ष थवामां जड कांई मदद करतुं न होय पण जड कर्म आत्माने संसारमां
तो रखडावे छे ने?
उत्तर:– एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई करी शके नहीं एवो सिद्धांत आगळ कहेवाई गयो छे. सिद्धांतमां
अपवादने स्थान नथी.
आत्मा पोताना ऊंधा भावना कारणे संसारमां रखडे छे. आत्मानो संसार पण आत्मामां ज छे.
बहारनी वस्तुमां नथी. ऊंधोभाव ए ज संसार छे, कर्म संसारमां रखडावतां नथी. आत्माने सुख–दुःखनुं कारण
आत्माना ते वखतना भाव छे, कर्म के कर्मनुं फळ सुख दुःखनुं कारण नथी. नरक के स्वर्गक्षेत्र आत्माने दुःख
सुखनुं कारण नथी, नरकमां होवा छतां आत्मा पोताना स्वभावनुं भान करी शांतिनो अनुभव मेळवी शके छे;
ईन्द्रियनुं ओछापणुं ते जडनी अवस्था छे, ते आत्माने दुःखनुं कारण नथी, पण आत्मा पोताना गुणनी ऊंधाई
करीने पोताना ज्ञाननी उघाड शक्ति गुमावी बेठो छे तेनुं दुःख छे. वळी जो कर्म आत्माने दबावतां होय तो
आत्माने छोडनार पण कर्म ज ठरे ने तेम थतां मोक्षनो पुरुषार्थ न रह्यो–पण कर्म मार्ग आपे त्यारे मोक्ष थाय
एवुं थयुं– एटले आत्मानो मोक्ष नहीं पण कर्मनो मोक्ष एवो प्रसंग आव्यो!
आत्मा उपर कर्मनी बिलकुल सत्ता न होवा छतां भ्रमथी–मिथ्या कल्पनाथी कर्मनी सत्ता पोता उपर जीव
मानी बेठो छे. जेम कोई मदिरा पीने उन्मत्त थयेलो मनुष्य पुरुषाकारे पत्थरना स्थंभने साचो पुरुष जाणी तेनी
साथे लडयो, तेणे पत्थरना स्थंभने बाथ भीडतां ते पत्थरनो स्थंभ उपर अने पोते नीचे पोतानी मेळे थयो,
त्यां ते कहे के ‘हुं हार्यो, आणे मने दाब्यो,’ ए प्रमाणे ते उन्मत्त मनुष्य पत्थरनी सत्ता पोता उपर मानीने
दुःखी थई रह्यो छे, तेम मिथ्यात्वरूपी मदिराना पानथी अज्ञानी आत्मा जडनी कर्मरूप अवस्थाने जाणतां
पोतानी उपर कर्मनी सत्ता मानी बेठो छे अने कर्म मने हेरान करे छे, एम मानी रह्यो छे, त्यां खरेखर तो कर्मे
दाब्यो नथी, पण भ्रमथी मात्र मान्युं छे. आ रीते जड अने चेतन, कर्म अने आत्मा बन्ने स्वतंत्र छे, कोईनी
सत्ता एक बीजा उपर नथी. दरेक आत्मा स्वतंत्र छे, कोई आत्माने कर्म हेरान करी शकतां नथी.
स्वरूपनुं श्रवण ते बुद्धिनो सदुपयोग
जेम कमळरहित सरोवर सुंदर नथी लागतुं तेम आप्त वचन न सांभळवानी बुद्धि पण
शोभाहिन ज छे एम समजवुं.
अहीं ‘सांभळवुं’ शब्द कांईपण सांभळवुं एवा सामान्य अर्थ वाचक नथी, परंतु
आप्तनां वचन सांभळवा ए ‘सांभळवुं’ शब्दनो अर्थ छे.
श्रद्धा रहित सांभळवुं (श्रवण) सुलभ छे; पण जेवी जिनेश्वरे कही छे तेवी ज श्रद्धागुण
युक्त श्रवण जगतमां दुर्लभ छे.
रत्नत्रयनी योग्यता धारण करवावाळा मनुष्यजन्म मळवां छतां पण हिताहितनी परीक्षा
करवामां बुद्धि न वापरी तो ते निष्फळ छे. रत्नत्रय परिणामनी योग्यता कर्मभूमिना मनुष्योमां
छे (भरत क्षेत्र एक कर्म भूमि छे.)