Atmadharma magazine - Ank 007
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २००० आत्मधर्म : ११३ :
आत्माने आधारे नथी अने आत्मानो धर्म परने आधीन नथी. धर्म स्वरूप भगवान तो अंदर ज बेठो छे. तेने
ओळख्या विना धर्म क्यां छे? आत्माने ओळख्या वगर–परने आधारे धर्म माने छे, पण आत्मानो धर्म तो
आत्मामां छे के परमां?
धर्म केम थाय?
सर्वज्ञ भगवाने तो कह्युं के तारो आवो संपूर्ण स्वभाव छे ते तुं समज! एम कहेवामां भगवान कांई
तारो धर्म आपी देता नथी. पण पुण्य, पाप रहित ज्ञान स्वभावने ओळखी ज्ञान गुणमां ठरवुं अने परनी
पक्कड न करवी ते ज धर्म छे. धर्म तेनुं नाम के राग–द्वेष रहित स्वभावने ओळखी, ते स्वरूपमां ठरवुं–अने
रागद्वेष थवा न देवो. आत्मानो धर्म आत्मामां ज छे.
धर्मी – (ज्ञानी) नी मान्यता.
शरीरादि कोई पर द्रव्यने आधारे धर्मी (ज्ञानी) जीव शोभा मानतो नथी. कारण के ते जाणे छे के
‘अंतरनी शोभा अंतरमां छे; अने संध्याना रंगनी जेम आ बधा पौद्गलिक खेल छे ते पूर्वना पुण्य–पापना
कारणे छे, ते क्षणिक छे. तेना आधारे मारो धर्म नथी. ’ (उपरमां शरीरादि कह्युं तेमां पुण्य, पाप, राग, द्वेष,
क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काया, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन तथा आहार, पाणी
आदि सर्व लई लेवां.)
ज्ञानीने आहारनो पण परिग्रह नथी एम हवे कहे छे:– अनिच्छक कह्यो अपरिग्रही, ज्ञानी न ईच्छे
अशनने, तेथी न परिग्रही अशननो ते, अशननो ज्ञायक रहे. २१२.
शब्दार्थ:– अनिच्छकने अपरिग्रही कह्यो छे अने ज्ञानी अशनने (भोजनने) ईच्छतो नथी, तेथी ते
अशननो परिग्रही नथी, ज्ञायक ज छे–
टीका: ईच्छा परिग्रह छे. जेने ईच्छा नथी तेने परिग्रह नथी. आहारनी ईच्छा ते अज्ञानमय भाव छे
एटले के आहार सदाय कर्या करूं एवो भाव ते अज्ञानमय छे, आत्माना स्वभावनुं खून करनार अधर्म भाव छे.
प्रश्न:– तो पछी आहार न करवाथी धर्म थायने?
उत्तर:– आत्मा ज्ञानमूर्ति स्वरूप छे तेने ओळख्या वगर कदी धर्म थाय नहीं.
धर्मीनुं लक्षण
धर्मी तेने कहेवो के जेने आहारनी भावना न होय; धर्मी जीवने आहार होय खरो, पण तेने एवी
भावना नथी के सदाय आहार करूं अने सदाय शरीर रहे. जो एवी भावना होय तो ते अधर्मी छे, कारण के
तेमां शरीर टकी रहेजो ए तो जडनी भावना छे. जडनी भावना ज्ञानीने होय नहीं. आत्मा ज्ञानमूर्ति अशरीरि
सिद्ध समान छे तेनी ज भावना होय.
मुनिने आहार होय छतां तेनी भावना न होय. ते जाणे छे के ईच्छा के आहार मारुं स्वरूप नथी. लाडवा
वगेरेमां अज्ञानी स्वाद माने छे, पण जे परमाणुओ अत्यारे लाडवा रूपे छे ते ज छ कलाके विष्टारूप थवाना छे
तेमां स्वाद क्यां छे? अज्ञानी तेनी मीठाशमां (रागमां) पोताना स्वभावने चूकी जाय छे; पण ज्ञानी तो
आहारनो केवळ ज्ञायक ज छे.
धर्मीने आहार केम?
अहीं कोईने प्रश्न थाय के:–आहार तो धर्मात्मा मुनिपण करे छे अने ते ईच्छा वगर आहार केम करे?
अने ईच्छाने तो आप अधर्म कहो छो तेनुं शुं? तेनो उत्तर:– धर्मात्माने असातावेदनीयना उदयथी जठराग्निरूप
क्षुधा देखाय छे (तेनी असर जठरमां– परमाणुओमां आवे छे. आत्मा तो तेनो ज्ञायक छे) अने वीर्यांतरायना
उदयथी ते वेदना सही शकाती नथी. (केवळीने आहार वगर चाले छे, पण हजी नीचली दशा छे. पूर्णता उघडी
नथी अने शरीर नभवानुं छे, त्यां आहार छे.) तेथी चारित्र मोहनीयना उदयने कारणे चारित्रमां अस्थिरता
पोताना पुरुषार्थनी नबळाईने कारणे छे एटले आहारनी वृत्ति आवी जाय छे. पण ते