: ११४ : आत्मधर्म २००० : जेठ :
धर्मात्मा अंतरमां जाणे छे के आ आहारनी ईच्छा मारुं स्वरूप नथी. हुं तो ज्ञानमूर्ति चिदानंद स्वरूपनी भावना
भावुं के आहारनी? आ ईच्छा तो रोग छे, एम जाणी धर्मी ते मटाडवा ज चाहे छे.
भूख एटले शुं?
भूख क्यां लागे छे ते कदी तपास्युं छे? शुं आत्माने भूख लागती हशे? भूख तो शरीरमां छे, शरीरनी
एक अवस्था छे. आत्माने क्षुधा नथी, तेमज आहार पण नथी.
ज्ञानीनी भावना
धर्मी ईच्छाने ईच्छतो नथी. ईच्छा ईच्छे छे ते धर्मी नथी. धर्मीने तो आत्माना गुणनी ज भावना छे.
छतां ईच्छा आवे खरी पण ते ईच्छानी ईच्छा (एटले के आ ईच्छा सदाय रहेजो एवी भावना) ज्ञानीने होती
नथी. अने ईच्छानी भावना वाळो धर्मी होतो नथी. धर्मीने तो क्षणे क्षणे ईच्छाना नाशनी ज भावना छे, कारण
के ईच्छा ते आत्माना गुणनी ऊंधाई छे. धर्म एटले आत्मानो स्वतंत्र स्वभाव, तेनी ज ज्ञानी भावना भावे छे
के मारुं ज्ञान स्वरूप सदाय मारामां ज रहो, ज्ञान स्वभाव सिवाय बीजी कोई ईच्छा के विकल्प मारुं स्वरूप नथी;
एम ज्ञानीने ईच्छाना नाशनी ज भावना छे.
स्वभावनी रुचि विना रागनी रुचि टळे नहीं.
ईच्छा ते राग छे. राग ते विकार छे. ते परद्रव्यजन्य विकारभावनुं स्वामीपणुं ज्ञानीने नथी. रागनो धणी
थाय ते धर्मनो धणी नहीं, अने धर्मी ते रागनो धणी नहीं. धर्म ते आत्मानो स्वभाव छे, आत्मानो स्वभाव
जाणवुं–ते जाणवानी क्रिया रागरहितनी छे. आत्मा सदाय चैतन्य ज्योत परिपूर्ण ज्ञान स्वभावी–तेनी ओळखाण
वगर स्वनी रुचि आवे नहीं, अने स्वनी रुचि थया वगर परनी रुचि टळे नहि. परनी रुचिने लईने लोकोने
स्वभावनी भावना नथी. विकारमात्र मारुं स्वरूप नथी एवुं भान होवा छतां ज्ञानीने ईच्छा थई जाय ते कर्म
जन्य छे, पुरुषार्थनी नबळाईने लईने छे, ज्ञानीने तेनी भावना नथी, ते तो मात्र तेनो जाणनार ज छे.
अनादिथी धर्म केम न समजयो?
अज्ञानने लईने धर्म समजवो कठण थई पड्यो छे, स्व शुं, पर शुं, पुण्य शुं, पाप शुं, अने
पुण्यपापरहित धर्म शुं? तेना विवेकना अभावने लीधे धर्मनुं स्वरूप समजवुं कठण थई पड्युं छे.
समकिती पोतानुं स्वरूप केवुं माने छे?
ज्ञानी–समकिती जीवने पण आहार होय, ते जाणे छे के आ शरीर हजी टकवानुं छे अने पुरुषार्थनी हजी
नबळाई छे एटले आहारनी ईच्छा आवे छे, पण ते शरीरना आधारे धर्म मानता नथी. अंतरमां तो नकार
वर्ते छे के आ नहीं रे नहीं! आ मारुं कर्तव्य नहीं. मारुं स्वरूप तो जाणवुं देखवुं अने मारामां ठरवुं, तेमां आ
कोई मारुं स्वरूप नथी.
अज्ञानी परथी धर्म माने छे.
अज्ञानी माने छे के आहार सारो करीए, अने शरीर सारुं रहे तो धर्म थाय; केम जाणे के धर्म परने
आधारे होय?
अने वळी कहे छे के
‘ शरीरादि खलु धर्म साधनम् ’
(ते तद्न खोटी वात छे.) आत्माने (मान्यतामां) मारी नाख्यो छे. वस्तुनी स्वतंत्रतानुं खून करी नांख्युं छे.
दरेक वस्तु स्वतंत्र – जाुदी छे.
एक तत्त्वने बीजा तत्त्वनी मदद त्रणकाळ त्रणलोकमां नथी. एक तत्त्वने बीजा तत्त्वथी लाभ के नुकसान
थाय तो बे तत्त्वो एक थई जाय. तेथी आत्मानुं साधन आत्मामां ज छे, कोई–
कुदेव, कुगुरु अने कुधर्मनो त्याग करो
अहो! देव, गुरु, धर्म तो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ छे, एना आधारे तो धर्म छे, तेमां शिथिलता राखे तो
अन्य धर्म केवी रीते थाय? घणुं शुं कहेवुं! सर्वथा प्रकारे कुदेव, कुगुरु, कुधर्मना त्यागी थवुं योग्य छे. कारण
के कुदेवादिकनो त्याग न करवाथी मिथ्यात्व भाव घणो पुष्ट थाय छे, अने आ काळमां अहीं तेनी प्रवृत्ति
विशेष जोवामां आवे छे. माटे तेना निषेधरूप निरूपण कर्युं छे. माटे स्वरूप जाणी मिथ्याभाव छोडी पोतानुं
कल्याण करो.