: जेठ : २००० आत्मधर्म : ११५ :
परने आधारे नथी. जुदां तत्त्वो एक बीजाने कांई पण करी शके एम त्रण लोकमां बन्युं नथी, बनतुं नथी अने
बनशे नहीं. वस्तुनी आवी स्वतंत्रता, आत्म तत्त्वनी ओळखाण, अने रुचि वगर कदी धर्म थाय नहीं. ज्ञानीने
परनुं स्वामीपणुं नथी, पोतानुं (ज्ञाननुं) ज स्वामीपणुं वर्ते छे.
हवे कहे छे के ज्ञानीने पाणीनो पण परिग्रह नथी, ते जाणे छे के पाणीथी आत्माने कांई मदद नथी.
पाणीथी आत्माने शांति थाय एम माननारने आत्माना स्वतंत्र स्वावलंबी स्वभावनी खबर नथी.
अनिच्छक कह्यो अपरिग्रही, ज्ञानी न ईच्छे पानने; तेथी न परिग्रह पाननो, ते पाननो
ज्ञायक रहे. २१३
तृषा क्यां लागती हशे? शुं आत्माने लागती हशे? तृषा लागे शरीरमां! आत्मा तो मात्र जाणे के आ
कंठ (जड) सूकाय छे, हुं नहीं.
धर्मात्मा पण नबळाई होवाथी पाणी पीए, पण ज्ञानी अंतरमां जाणे छे के आ मारुं कत्र्व्य नथी. तेथी
तेने पाणीनी के पाणीना रागनी पक्कड नथी.
आ धर्म केम थाय तेनी वात कहेवाय छे.
धर्मनी व्याख्या
धर्म एटले आत्मानो स्वभाव. स्वभाव= (स्व+भाव) पोताथी (आत्माथी) प्रगटतो भाव,
परावलंबने प्रगटे ते धर्म कहेवाय नहीं. आत्मा ज्ञान स्वभावी वस्तु छे. जाणवुं एज तेनो स्वभाव छे. पुण्य–
पापनी वृत्ति ते कर्माधीन क्षणिक विकार भाव छे; त्रिकाळी अविकारी स्वरूपनी रुचिमां ज्ञानीमां तेनी रुचि नथी.
हवे उपर प्रमाणे बीजा पण अनेक प्रकारना परजन्य भावोने ज्ञानी ईच्छता नथी–एम कहे छे. ए
आदि विधविध भाव बहु ज्ञानी न ईच्छे सर्वने सर्वत्र आलंबन रहित बस नियम ज्ञायक भाव ते. २१४.
क्रोध, मान वगेरे अनेक प्रकारना परभावो अने परवस्तुने धर्मी (आत्माना सुखनो कामी) ईच्छतो
नथी. धर्मी ते अंतरनी भावना भावे के परनी!
बधा ज्ञानीओनी मान्यता
परंतु अवलंबन धर्मीने द्रष्टिमां नथी. मारा आत्माना गुणने परनी सहाय त्रणलोक त्रणकाळमां कदी
नथी. निश्चय–नित एक रूप ज्ञानस्वभावी छुं तेनी रुचिमां ज्ञानी ईच्छा मात्रनुं अवलंबन स्वीकारता नथी. ते
जाणे छे के ईच्छा तो विकार छे, विकारने आधारे अविकारी धर्म होई शके ज नहीं. आवुं चोथा गुणस्थानथी
मांडीने बधाय ज्ञानीओ माने छे.
देहनी क्रिया स्वतंत्र छे, छतां नबळाईना कारणे जे राग थाय छे तेनी भावना ज्ञानीने नथी पण
हजी वीतरागता नथी प्रगटी त्यां सुधी पुरुषार्थनी नबळाईना कारणे अल्पराग होय खरो, जो सर्वथा
राग न ज होय तो वीतरागता प्रगट होय.
ज्ञानीनी द्रष्टि
आ वात गळे न उतरे, पण ज्ञानमां तो जरूर उतरे तेवी छे. गळुं जड छे, ज्ञान आत्मानो स्वभाव छे.
पण कांईक विचार करे तो ज्ञानमां आ वात उतरेने! अनंतकाळमां कदी एक क्षण पण आ वात विचारी नथी.
राग वगेरे पर द्रव्यना लक्षे थाय छे, तेथी ते पर द्रव्यनो स्वभाव छे, ते बधा भावोने ज्ञानी ईच्छतो नथी, के
ज्ञानीने तेनी रुचि नथी. अंतर द्रष्टिमां सर्वनी पककड छुटी गई छे, आ चीज मारी छे के आ चीज मने मदद
करशे एवी सर्व परनी पककड ज्ञानीने द्रष्टिमांथी छुटी छे––पककड एक स्वभावनी ज छे.
ज्ञानी अने अज्ञानीनुं लक्षण
ज्ञान सर्वने जाणे–पण परनुं कांई करी शके नहीं. मारुं काम कोई करी शके नहीं. हुं कोई परनुं
“नम समयसर”
समस्त संसार अने संसार तरफ वलणना भावथी हवे अमे संकोचाईए छीए; अने
चिदानंद ध्रुव स्वभावी एवा ‘समयसार’मां समाई जवा मागीए छीए; बाह्य के अंतर संयोग
स्वप्ने पण जोईतो नथी.
बहारना भाव अनंतकाळ कर्या हवे अमारुं परिणकन अंदर ढळे छे.
अप्रतिहत भावे अतंर स्वरूपमां ढळ्या ते ढळ्या, हवे अमारी शुद्ध परिणतीने रोकवा
जगतमां कोई समर्थ नथी.