: अषाढ : २००० : आत्मधर्म : १४१ :
विश्वप्रेम
लेखक : – रामजीभाई माणेकचंद दोशी
प्रश्न– श्री ‘आत्मधर्म’ ना त्रीजा अंकमां ‘आत्मानुं हित मोक्ष ज छे.’ ए मथाळावाळो लेख वांच्यो;
तेमां विश्व प्रेमनुं स्वरूप आवी जतुं होय एम मने लागे छे ते खरूं छे?
उत्तर– हा; ते लेखमां जे स्वरूप कह्युं छे तेमां विश्व प्रेमनुं स्वरूप आवी जाय छे.
प्रश्न– आ विषयने वधारे स्पष्टपणे कहेवामां आवे तो सारुं माटे जणावो.
उत्तर– [अ] ‘विश्व’ एटले जगतना सर्व पदार्थो–छ ए द्रव्यो ते नीचे प्रमाणे छे.
१–– सिध्ध जीवो, संसारी जीवो जेनी संख्या अनंत छे.
२–– अनंतानंत पुद्गल द्रव्यो, तमाम प्रकारना [स्कंधो सहित]
३–– एक धर्मास्तिकाय. ४–– एक अधर्मास्तिकाय.
प–– एक आकाश ६–– असंख्यात कालाणु.
[ब] प्रेम बे प्रकारना छे. एक रागरहित प्रेम, बीजो रागसहित प्रेम. तेमां जे रागरहित प्रेम छे ते
विश्वप्रेम छे–केमके तेमां सर्व द्रव्यो प्रत्ये समभाव छे. राग–द्वेष नथी; विश्वप्रेमनुं बीजुं नाम समानभाव अथवा
समभाव छे. वस्तुओ, गुणो अने तेनी अवस्थाओ जेम छे तेम जाणवां अने ते प्रत्ये राग–द्वेष न करवो तेनुं
नाम साचो विश्वप्रेम छे.
प्रश्न–– ‘आत्मानुं हित एक मोक्ष ज छे ’ ते लेखमां आ स्वरूपनो भाग क्यो छे ते जणावो.
उत्तर––ते लेखना नीचेना फकरामां ते विषय आवे छे––
जेना अंतरंगमां आकुळता छे ते दुःखी छे तथा जेने आकुळता नथी ते सुखी छे. वळी आकुळता थाय छे
ते रागादि कषाय भाव थतां थाय छे, कारणके रागादि भावोवडे आ जीव तो सर्व द्रव्योने अन्य प्रकारे
परिणमाववा ईच्छे छे, अने ते सर्व द्रव्यो अन्य प्रकारे परिणमे छे त्यारे आने आकुळता थाय छे.
‘हवे कां तो पोताने रागादि ‘भाव दूर थाय अथवा पोतानी ‘ईच्छानुसार ज सर्व द्रव्यो परिणमे तो
आकुळता मटे. हवे सर्व द्रव्यो तो आने आधीन नथी, पण कोई वेळा कोई द्रव्य आनी ईच्छा होय तेम ज
परिणमे तो पण आनी आकुळता सर्वथा दूर थती नथी. सर्व कार्य आनी ईच्छा अनुसार ज थाय, अन्यथा न
थाय त्यारे ज आ निराकुळ रहे, पण एम तो थई ज शकतुं नथी, कारणके कोई द्रव्यनुं परिणमन कोई द्रव्यने
आधीन नथी, पण पोताना रागादि भाव दूर थतां निराकुळता थाय छे; अने ते कार्य बनी शके एम छे, कारणके
रागादि भावो आत्माना स्वभाव भाव तो छे नहीं पण औपाधिक भाव छे.’
प्रश्न:–त्यारे तो एम थयुं के कोई द्रव्यनुं परिणमन कोई द्रव्यने आधीन नथी एम नक्की करी पर वस्तुओ
प्रत्ये रागद्वेष न करवा अने निराकुळता प्रगट करवी तेनुं नाम ‘विश्व प्रेम’ छे एम तमे कहेवा मांगो छो?
उत्तर:–हा, तेम ज छे. तेवो भाव प्रगट थतां कोई पण जीवने दुःख देवानो अगवड आपवानो, प्राण
हरवानो, तेनी सगवड लई लेवानो के एवो कोई पण विकार भाव रहेतो नथी. तेवो भाव सिध्ध, तीर्थंकर के
केवळी जीवोने होतो नथी तेथी तेओ पूरा अने खरा विश्वप्रेमी छे.
प्रश्न:–सिध्ध भगवानोथी लोकोने शुं लाभ थाय छे.
उत्तर:–सिध्ध भगवानना ध्यान वडे जीवोने स्वद्रव्य–परद्रव्य तथा उपाधिक–स्वाभाविक भावनुं विज्ञान
थाय छे; ते ध्यान पोताने सिध्ध समान थवानुं साधन थाय छे; तेथी साधवा योग्य पोतानुं शुध्ध स्वरूप तेने
दर्शाववा माटे सिध्ध प्रतिबिंब समान छे. ए प्रकारे सिध्ध भगवान ‘विश्व प्रेमी’ छे.
प्रश्न:–पोताना गामना माणसोने सुख आपवानो, सगवड आपवानो, प्राण उगारवानो, तेनी सगवड
वधारवानो एवो कोई भाव तेमां आव्यो नहीं तो तेने ‘प्रेम’ केम कही शकाय?
उतर:–अमुकने ज सुख वगेरे आपवानो भाव करे तो विश्व [बधां] प्रत्ये प्रेम न रह्यो. तेनो सिद्धांत ए
छे के जीव ज्यां सुधी