Atmadharma magazine - Ank 008
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: १४२ : आत्मधर्म : अषाढ : २००० :
पोतानुं साचुं स्वरूप न समजे त्यां सुधी ते पर प्रत्ये रागद्वेष ओछो के वधारे कर्या विना रहेशे ज नहीं, तेथी
हाल कोई प्रत्ये राग करशे तो ते भाव [विकारी होवाथी] पलटो खाधा वगर रहेशे नहीं. वळी एक के वधारे
प्रत्ये राग होय त्यां बीजाओ प्रत्ये ते ज वखते द्वेष छे केमके बधाने समान गण्या नहीं. राग पछी अज्ञानीने
द्वेष थया वगर रहेशे ज नहीं; माटे जीव जो पोतानुं स्वरूप समजे तो ज जगतना सर्व पदार्थो प्रत्ये यथार्थ भाव
राखी शके तेने ज ‘विश्वप्रेम’ कही शकाय.
ए ध्यानमां राखवानुं छे के जीव पोतानुं स्वरूप समज्या विना कदीपण द्वेष के राग टाळी शकशे ज नहीं,
तेमां हीनाधिकता कर्या करशे.
प्रश्न:–सर्व जीवो प्रत्ये सरखा रागवाळो प्रेम बनी शके के केम?
उत्तर:–ना, न बनी शके. बधा जीवो प्रत्ये सरखा रागवाळो प्रेम न ज बनी शके–एटलुं ज नहीं पण
बधा मनुष्यो [जेमां पोतानो समावेश थाय छे] प्रत्ये पण सरखो प्रेम न रही शके. एक माणस जमती वखते
जगतना बधा माणसो जम्या के केम, जमे छे के केम, तेने सर्वेने पूरतुं अने सारुं जमवानुं मळे तो ज मारे जमवुं
एम कदी करी शके नहीं, परंतु सर्वनुं स्वरूप जेवुं छे तेवुं जाणी तेमना प्रत्ये रागद्वेष न करे ते ज तेमना प्रत्ये
खरो (अकषायी) प्रेम छे.
प्रेमना बे भाग पाडतां रागरहित प्रेम अने रागसहित प्रेम ए बे भाग पाड्या हतां, तेमां रागरहित
प्रेमनुं स्वरूप जे कह्युं ते पूर्ण रीते अमलमां लावनार वीतरागी जीवो अने सिध्ध भगवानो छे तेथी शास्त्रमां
तेमने ‘अकषायी करुणासागर’ कह्या छे.
प्रश्न:–विश्व प्रेमने अपूर्णपणे कोण अमलमां मूकी शके?
उत्तर:– छद्मस्थ सम्यग्द्रष्टि जीवो.
प्रश्न:– छद्मस्थ वीतरागी न होय तेने तो ‘राग’ होय छे तो पछी ते ‘विश्व प्रेम’ केम कही शकाय?
उत्तर:– तेओ परनुं भलुं के बुरुं हुं करी शकुं तेम मानता नथी, तेथी पोताना हित माटे ज्यारे पोते
शुध्धतामां रही शकता नथी त्यारे कोईने दुःख देवा वगेरेना भावो करता नथी, अने लोभादि टाळतां दानादिना
जे शुभ भावो तेमने थाय छे तेना ते मालीक थता नथी तेथी ते अपेक्षाए तेमने ‘अपूर्ण विश्वप्रेम’ छे एम कही
शकाय छे. संपूर्ण वीतराग थतां ते ‘संपूर्ण विश्वप्रेमी’ थई जाय छे.
प्रश्न:– आत्मानुं स्वरूप यथार्थपणे न जाणता होय तेवा जीवोने विश्वप्रेम होई शके के केम?
उत्तर:– ना, तेमने न होई शके. ‘आत्मानुं हित मोक्ष ज छे. ’ एम यथार्थपणे नक्की करे तेने ‘विश्वप्रेम’
थई शके.
(अनुसंधान पान १२६ नुं चालु)
२०. स्वरूपनो भोगवटो जोईए तेने बदले रागादि शुभ–पर–भावनो भोगवटो अभवी करे छे तेथी ते
भोगना निमित्तरूप पुण्यने श्रध्धे छे.
२१. एक पदार्थने बीजा पदार्थनी जरूर पडे त्यारे ते पदार्थ पराधीन थयो कहेवाय. आत्माने पर वस्तुनी
जरूरियात पडे ते ज पराधीनता दुःख छे.
२२. विकारी के अविकारी अवस्था ते मारामां नथी, हुं तो त्रिकाळी शुध्ध स्वरूप छुं. परिपूर्ण छुं. तेना
उपर लक्ष देतां मोक्ष दूर नथी. तेनाथी ऊलटा भाववाळाने बंधन दूर नथी एटले के ते समये समये बंधाय छे.
२३. पुरुषार्थनी जागृतिमां जे पुण्य बंधाई जाय तेना योगे अनुकूळ निमित्त मळ्‌या वगर रहे ज नहि.
माटे भावना पुरुषार्थनी होय, निमित्तनी नहि.
२४. निमित्तनी भावना भावनारो विकारने ज भावे छे, स्वभावने भावनारो वीतरागताने ज भावे छे.
२प. ज्ञेय–ज्ञायक संबंधने एकरूप मानवा ते अभिप्रायनी भूल छे ने ते ज बंधनुं कारण छे. रागादिक छे
ते ज्ञेय छे, तेथी ते जाणतां ज्ञाननी विशाळता थाय छे, एम ज्ञानी माने छे. ज्यारे अज्ञानी माने छे के रागादिक
मारां छे. कर्म मारा आत्मज्ञानने अटकावे छे. द्रष्टि फरक छे.
२६. स्वभावमां भवनो भाव नथी. स्वभावने पोतानो माने तेने भवनी शंका होय नहि. भवना
भावने जे मारा माने तेने भव होय. विशेष हवे पछी
तमारी नकल पांचने वांचवा आपी आत्मधर्मनी प्रभावना करो.