: १५६ : आत्मधर्म २००० : श्रावण :
ते महा अहंकाररूप अज्ञानांधकार टळी शके छे.
प्रश्न:– उपर जे उपाय बताव्यो तेने शास्त्रनी परिभाषामां शुं कहे छे?
उत्तर:– परमार्थ [सत्यार्थ–भूतार्थ–निश्चयनय] ना ग्रहणथी ते अज्ञानांधकार टळी जाय छे एम
शास्त्रपरिभाषामां कहेवामां आवे छे.
प्रश्न:– आ बाबतमां जे आधार होय ते जणावो!
उत्तर:– श्री समयसार गाथा ११ टीका–भावार्थ तथा कलश पप तेना अर्थ–भावार्थ अने “संजीवनी”
नामनुं प्रसिद्ध थयेलुं पुस्तक. ते आ बाबतना आधारो छे.
प्रश्न:– आ महा अहंकार टाळवा अनंत पुरुषार्थ जोईए एम केम कहो छो?
उत्तर:– “जीव परनुं कांई करी शके नहीं” एम प्रथम सांभळतां ज जीव आभो बनी जाय छे, अने “ते
मारे माटे नहीं, हाल नहीं, ए तो ऊंची दशावाळा माटे अने केवळी माटे छे” ए विगेरे खोटी कल्नाओ करी ते
तरफ रुचि करतो नथी, पण अरुचि करे छे जेथी ते टाळवा माटे अनंत पुरुषार्थनी जरूर छे, एम कह्युं छे.
जीवे अनादिकाळथी “पर द्रव्योने अने तेना भावोने (अवस्थाने) हुं करी शकुं” एवो भ्रम ग्रहण कर्यो
छे, अने पोतानी मेळे अज्ञानी थई रह्यो छे. श्रीगुरु परभावनो विवेक [भेदज्ञान] करी तेने वारंवार कहे छे के
“तुं आत्मस्वरूप छो! तुं परनुं कांई करी शके नहीं; माटे शीघ्र जाग! सावधान था! ”
कंटाळो लाव्या वगर आ कथन जो जीव वारंवार सांभळे, अने तेनी सारी रीते परीक्षा करी साचुं ज्ञान
करे तो अज्ञान टळे छे, तेथी आ समजवाने माटे अनंत पुरुषार्थनी जरूर छे ए सिद्ध थाय छे. जे आवो पुरुषार्थ
करे ते जाणी शके छे के जीव पुद्गलकर्मनो कर्ता थई शके नहीं. छतां अज्ञानी तेम माने छे ए बताववा शास्त्रमां
जीवने असद्–भूत (खोटा) व्यवहारनये कर्मनो कर्ता कह्यो छे, पण सद्भुत (साचा) व्यवहारनये ते जीव
पोताना शुद्ध भावोनो ज कर्ता छे.
– : भेदसंवेदन : –
१ अज्ञानीनी दशा.
भेदसंवेदननी (भेदज्ञाननी) शक्ति अनादिथी अज्ञानने लीधे आत्मानी बिडाई गयेली छे. तेथी परने
अने पोताने एकपणे ते जाणे छे. “हुं क्रोध छुं, हुं पर द्रव्य छुं, हुं परद्रव्यनी क्रिया करी शकुं छुं, परद्रव्य मारुं करी
शके छे.” ईत्यादि खोटा विकल्पो (कल्पित तरंगो) कर्या करे छे. पुद्गल कर्मना अने पोताना स्वादनुं
भेळसेळपणुं कल्पी, तेनो एकरूप ते अनुभव करे छे; अने तेथी निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विधानधन
स्वभावथी ते अनादिथी भ्रष्ट थयो छे. ते कारणे वारंवार अनेक विकल्परूपे परिणमे छे, अने पोताने, परनो
अने परभावनो (क्रोधादिनो) कर्ता प्रतिभासे छे.
२ ज्ञानीनी दशा
भेद संवेदननी (भेदज्ञाननी) शक्ति ज्ञानीने उघडी गई होय छे. आत्मा ज्ञानी थाय त्यारे ज्ञानने लीधे
ज्ञाननी आदिथी मांडीने पुद्गल कर्म अने पोतानो भिन्नभिन्नपणे अनुभव करे छे, अने एकरूपे अनुभव
करतो नथी. बंनेना पृथक पृथक स्वादनुं स्वादन (अनुभवन) तेने होय छे, तेथी ते जाणे छे के:–“अनादिनिधन,
निरंतर स्वादमां आवतो, समस्त अन्य रसथी विलक्षण (भिन्न) अत्यंत मधुर जे चैतन्यरस तेज एक जेनो
रस छे एवो हुं आत्मा छुं” वळी ते जाणे छे के “कषायो माराथी भिन्न रसवाळा [कषायला–बे स्वाद] छे,
तेमनी साथे जे एकपणानो विकल्प करवो ते अज्ञान छे.”
आ रीते परने अने पोताने भिन्नपणे ज्ञानी जाणे छे; तेथी अकृत्रिम (नित्य) एक ज्ञान ज हुं छुं; परंतु
कृत्रिम (अनित्य) अनेक जे क्रोधादिक ते हुं नथी एम जाणतो थको “हुं क्रोध छुं” ईत्यादि आत्मविकल्प जरापण
करतो नथी; तेथी समस्त कर्तृत्वने प्रथमद्रष्टिमां छोडी दे छे अने क्रमेक्रमे चारित्रमां छोडी दे छे.
ए रीते सदाय उदासिन अवस्थावाळो थईने मात्र जाण्या ज करे छे, अने तेथी निर्विकल्प; अकृत्रिम,
एक विज्ञानधन थयो थको अत्यंत अकर्ता प्रतिभासे छे.
ज्ञानीनी उपर कही तेवी दशा अविरत सम्यग्द्रष्टिथी शरू थाय छे.