२००० : श्रावण : आत्मधर्म : १४९ :
छे ते वस्तुमां नथी एक समय पूरतुं [अवस्थानुं] आवरण टळ्युं के दीवो पूर्ण प्रगट ज छे. द्रव्य तो पुरी
अवस्थाथी ज भरेलुं छे, तेनी जे अधूरी के ऊणी पर्याय कहेवाय छे तेमां परनी अपेक्षा लागु पडे छे. द्रव्य पोते
वर्तमानमां ज पुर्ण अवस्थाथी भरेलुं छे, जे अहीं छे ते ज सिद्धदशामां प्रगट थाय छे–सिद्धदशामां नवुं
(बहारथी) कांई आवतुं नथी.
वस्तु जो अवराय तो ते वस्तु ज न कहेवाय. अने एक समयनी अवस्था पुरतुं आवरण कहो तो ते
अवस्था तो बीजे समये बदली जाय छे; अवस्था बदली जतां ते समयनुं आवरण पण टळी जाय छे, नवी
अवस्थामां नवुं आवरण करे तो थाय, माटे आवरण वस्तुमां नथी.
टोपले दीवाने ढांक्यो नथी पण दीवानी अवस्थाने ढांकी छे, जो दीवो ज ढंकाय तो दीवानो अभाव ठरे,
एम जो आत्मा ज ढंकाई जाय तो तत्त्वनो ज अभाव थई जाय. एटले अवस्था तो एक समय पुरती छे.
पर्याय समये समये पलटी जाय छे अने वस्तु तो त्रिकाळ टकी रहे छे; पर्याय ते वस्तु नथी. (पर्यायनुं आवरण
ते वस्तुमां नथी.)
जो मलिनता एक समय पुरती न होय–कायमनी होय तो ते पल्टी केम जाय? पल्टी जाय छे तेथी
मलिनता वर्तमान एक समय पुरती छे अने वस्तु त्रिकाळ निरावरण छे.
जेम मलिन अवस्था एक समय पूरती छे तेम निर्मळ अवस्था (सिद्ध दशामां) पण एक समय पूरती
ज छे. सिद्ध दशामां पण बे समयनी अवस्था भेगी थती नथी. निर्मळ के मलिन अवस्थामां परनी अपेक्षा आवे
छे. अने द्रव्य तो त्रिकाळ एकरूप निरपेक्ष छे. वस्तुस्वभावमां निर्मळ के मलिन पर्याय (संसार के मोक्ष एवा
भेद लागु पडता नथी. वस्तु त्रिकाळ निरपेक्ष छे अने पर्याय अभूतार्थ छे. क्षणिक छे. त्रिकाळ आवरणथी रहित
संपूर्ण द्रव्य ते “वस्तु” छे.
अहा! वस्तु ते वस्तु!!! वस्तुमां त्रणकाळमां कोई अपेक्षा ज लागु पडी शकती नथी. अपेक्षा तो
पर्यायमां आवे छे. निरपेक्ष वस्तुने ज “कारण परमात्मा” कहेल छे; ए वस्तु उपर लक्ष आपतां पूर्ण
परमात्मपद प्रगटे छे तेथी अहीं “कारण परमात्मा” परिपूर्ण वस्तुनुं वर्णन लीधुं छे.
भगवान अरिहंतदेव कार्य परमात्मा छे, तेमने पुर्ण परमात्मदशा प्रगटी गई छे.
गुण अने वस्तु त्रिकाळ एकरूप निर्मळ छे तेमां निमित्त, संयोग के आवरण होई शके नहीं. अहीं कोईने
प्रश्न ऊठे के त्रिकाळ निरावरण कह्युं तो वर्तमान अवस्थामां पण बंधननो नकार कर्यो?
उत्तर:– अहीं पर्यायनुं लक्ष ज नथी; वस्तुनुं ज लक्ष छे, वस्तुनुं लक्ष अवस्थाद्वारा थाय छे, जे अवस्थाथी
लक्ष थयुं ते अवस्थानुं लक्ष नथी. द्रष्टि निरपेक्ष वस्तु उपर छे तेमां पर्यायनुं लक्ष नथी.
वस्तु तो त्रिकाळ छे, ज्यां अवस्थानुं परिणमन अंदर ढळ्युं एटले के ‘हुं शुद्ध द्रव्य छुं’ एम पर्याय द्वारा
द्रव्यनुं स्वरूप नक्की कर्युं त्यां पर्याय उपर द्रष्टि ज न रही, अपेक्षा ज न रही. अहीं एकलो धु्रव स्वभाव लीधो
छे. जे अवस्थाथी अंतरमां ढळ्यो ते अवस्था तो धु्रव स्वरूपमां मळी गई तेमां निर्मळता के मलिनतानी अपेक्षा
ज न रही.
अरिहंत के सिद्धपद प्रगट्युं ते तो पर्याय छे. अवस्था (पर्याय) जे वस्तुथी प्रगटी ते वस्तु तो त्रिकाळ
एकरूप छे, वस्तु पोताथी दुःखरूप के अपुर्ण न होई शके. वस्तु तो आनंदमय परिपुर्ण छे; बंध मोक्षना भेद पण
वस्तुमां नथी.
सोनुं सोनापणे एकरूप ज छे; कडां कुंडळ के वींटी गमे ते अवस्थामां सोनुं तो–सोनुं ज छे अन्य नथी;
पण आकारनी अवस्था–द्रष्टिए जोवामां आवे तो ते अनेकरूप भासे छे. तेम आत्मा वस्तुद्रष्टिए तो नित्य
एकरूप ज छे, पर्याय द्रष्टिए ज भेद जणाय ते वस्तुमां नथी.
आ समजतां पुर्ण स्वरूपनी रुचि थाय अने परनो महिमा टळे तेनुं नाम धर्म. आ अक्षय त्रीजनुं अक्षय
ज्ञानस्वरूप बताव्युं.
नोट:– वस्तु त्रिकाळ कहेतां तेमां काळनुं लंबाण नथी बताववुं पण भावे एकरूप निरावरण छे एम बताववुं छे.