Atmadharma magazine - Ank 010-011
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २००० : पर्युषण अंक : १६९ :
बंधायेलो छुं’ एवा भ्रमने कापी नांखे छे. स्वतंत्रतानी श्रद्धाना जोर विना कदी स्वतंत्रता प्रगटे नहीं,
पराधीनता टळे नहीं अने मुक्ति थाय नहीं.
‘हुं बंधायेलो नथी, मारा स्वरूपमां बंधन छे ज नहीं’ एम जेने तत्त्वनी निर्बंधद्रष्टि छे ते अवस्थामां
क्रमेक्रमे निर्जरा करी मुक्त थई जशे. प्रथम श्रद्धा जोईए, ध्रुवस्वरूपना जोर वडे आठे कर्मोनो नाश करी सहजानंद
परमात्मा (जेवो अंदर पड्यो छे तेवो) प्रगट थई जाय छे.
शुभाशुभ वृत्ति आत्मानुं स्वरूप नथी. आत्मा ते शुभाशुभ भाव जेटलो नथी. दयादिनी वृत्ति ते
क्षणेक्षणे नवी थाय छे. ते वृत्ति वखते अज्ञानीने ‘आ मारा स्वरूपमां छे’ एवी मान्यताना कारणे बंधन थाय
छे; अने ज्ञानी ‘मारा स्वभावमां बंधन–भाव नथी, विकार नथी, अवस्थामां नबळाईना कारणे आ वृत्ति
आवी जाय छे’ एवा भानमां परनो (शुभाशुभ लागणीओनो) धणी थतो नथी तेथी तेने निर्जरा थाय छे.
द्रष्टिमां परिपूर्ण स्वभावनुं जोर पुरुषार्थनी नबळाईनुं धणी पणुं थवा देतुं नथी.
मारा स्वभावमां ऊणप के विकार नथी, पुरुषार्थनी नबळाई पण मारा स्वभावमां नथी, फक्त
अवस्थामां जे नबळाई देखाय छे ते वर्तमान पुरुषार्थनी नबळाई छे एम ज्ञानी जाणे छे.
ज्ञानीने टंकोत्किर्ण एवा एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे–कर्मबंध संबंधी शंका करनार अर्थात् कर्मवडे
बंधायेलो छुं एवो भय (संदेह) उत्पन्न करनार मिथ्यात्व आदि भ्रांति भावोनो अभाव होवाथी–ते निःशंक
छे; एटले ‘हुं परथी बंधाउं’ एवो शंकाकृत बंध तेने (ज्ञानीने) नथी, पण निर्जरा ज छे.
प्रश्नोत्तरी
रजाु करनार: – रामजीभाई माणेकचंद दोशी.
प्रश्न–जीवादि तत्तवो समजवा माटे आ काळे कोण लायक छे?
उत्तर–प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोनुं श्रद्धान करवा योग्य ज्ञानावरणनो क्षयोपशम (ज्ञाननो
उघाड) तो सर्व संज्ञी पंचेंद्रिय जीवोने थयो होय छे, माटे ते लायक छे.
प्रश्न–तो पछी सर्व संज्ञी पंचेंद्रिय जीवोने जीवादि तत्त्वोनुं श्रद्धान केम थतुं नथी.
उत्तर–जे जे संज्ञी जीवो प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोनो यथार्थ निर्णय करवा माटे पोताना ज्ञानमां
पुरुषार्थ करे छे तेने साची श्रद्धा थाय छे, अने जे जे संज्ञी जीवो प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोनो यथार्थ
निर्णय करवा माटे पोताना ज्ञानमां पुरुषार्थ करता नथी, पण पर ज्ञेयोने जाणवामां ते ज्ञानने रोकवामां
असत्यार्थ पुरुषार्थ करे छे तेने प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोनुं श्रध्धान थतुं नथी.
क्षयोपशम ज्ञान ज्यां लागे त्यां एक ज्ञेयमां लागे. जो पोताना स्वरूपने जाणवा तरफ ते ज्ञानने
लगाडे तो तेनुं ज्ञान थाय, अने जो पर ज्ञेयने जाणवा तरफ पोते पोताना ज्ञानने लगाडे तो पर ज्ञेय
ज्ञानमां लागे. परद्रव्यो अनंतानंत छे, एक ज्ञेयमां रोके तो कदीपण तेने बराबर जाणे नहीं. स्वने
यथार्थपणे जाण्या वगर परनुं यथार्थ ज्ञान थतुं नथी, तेथी जे संज्ञी जीवो पोतानो पुरुषार्थ पोता तरफ
वाळता नथी तेने यथार्थ श्रद्धा अने यथार्थ ज्ञान थतां नथी.
प्रश्न–धर्मना उपदेशमां मुख्यता शेनी जोईए?
उत्तर–मिथ्यात्व जे पाप छे तेनी प्रवृत्ति छोडाववानी मुख्यता जोईए. केटलीक बाबतोमां हिंसा
बतावी ते छोडाववानी मुख्यता करवी ए क्रमभंग उपदेश छे. जेओ दयाना केटलाक अंग योग्य पाळे छे,
हरित काय आदिनो त्याग करे छे, जळ थोडुं वापरे छे तेनो निषेध न समजवो. अंही तो मिथ्यात्वनुं महापाप
छोडाववानी प्रवृत्तिनी मुख्यता जोईए ए बताववानुं छे. जो तेनी मुख्यता नहीं करवामां आवे तो ते जीवो
दयाना केटलाक अंगो पाळवामां आखी जिदगी व्यतीत करशे, अने धर्मनी शरूआतरूप सम्यग्दर्शन पामशे
नहीं. ए रीते तेमनुं अमुल्य मनुष्य जीवन अफळ जशे, अने तेमनुं संसारचक्र चालु रहेशे.