: १७० : पर्युषण अंक : भाद्रपद : २००० :
‘अंध बनी अज्ञानथी कर्यो अतिशय क्रोध ते सवि मिच्छामि दुक्कडं’
[‘मिच्छामि दुक्कडं’ शुं छे ए जाण्या सिवाय घणी वार उपर प्रमाणेना पाठो आ जीव भणी गयो.
हवे मात्र एकजवार साचुं ‘दुक्कडं’ शुं छे ए जाणी सम्यगदर्शन प्राप्त करी परम पद पामवुं बाकी छे.
प. ण साचुं ‘दुक्कडं’ समजाशे क्यारे?]
लेखक: – रामजीभाई माणेकचंद दोशी.
१. ‘मिच्छामि दुककडं’ ए मागधी भाषानुं पद छे. तेने संस्कृतमां ‘मिच्छामि दुष्कृतं’ कहे छे.
मा+ईच्छामि+ दुष्कृतं––एम त्रण शब्दोनुं ते पद बनेलुं छे–तेनो अर्थ ‘माठां कृतने हुं ईच्छतो नथी’ एवो
थाय छे.
२. त्यारे “दुष्कृतं” शुं छे ए प्रथम समजवुं जोईए. मिथ्यात्व ते महापाप छे अने तेथी ते मोटामां मोटुं
“दुष्कृतं” छे. जीव जे कुळे जन्मे छे ते कुळमां घणे भागे कोईने कोई धर्मनी मान्यता होय छे. कुळधर्मनी ते
मान्यताने घरमां पोषण मळे छे. मोटो थतां धर्म स्थानके जतां ते मान्यताने विशेष पोषण मळे छे. वळी
धंधादारी काममां पडी जतां कुळधर्मनी मान्यतानुं यथार्थ स्वरूप शुं छे तेनी विचारणा करवाने तेने वखत मळतो
नथी. एटले ओघसंज्ञाए क्रियाओ पोते के पोताना सगा संबंधीओ जे करे ते धर्म होवो जोईए एम मानी लई
पोतानुं जीवन चलावे छे. ‘आत्मानो स्वभाव’ ते धर्म छे, एम तो तेने सांभळवानुं घणे भागे मळतुं नथी. आ
प्रमाणे पोताना स्वभावनुं घोर अज्ञान ते सेव्या करे छे. आ घोर अज्ञान ते पहेलांं नंबरनुं ‘दुष्कृत’ छे. माटे ते
अज्ञान टाळी पोतानुं स्वरूप यथार्थ जाणवानी जरूर छे. ते जाण्या सिवाय साचुं सुख प्रगटे नहीं अने खरूं
“मिच्छामि दुक्कडं” थाय नहि.
३. साचुं “मिच्छामि दुक्कडं” शुं छे ते समजवा माटे एक पाठ नीचे आपवामां आव्यो छे.
“अंध बनी अज्ञानथी कर्यो अतिशय क्रोध, ते सवि मिच्छामि दुक्कडं”
आवा पाठ घणा जीवो बोले छे, वांचे छे. पण तेनो अर्थ समजी खरूं “मिच्छामि दुक्कडं” करता नथी.
तेथी ए संबंधे थोडुं लखवानी जरूर छे.
४. उपरनी कडीमां ‘अज्ञान’ थी बंध बन्यो एम कह्युं, पण अज्ञान टाळवा महेनत जीव करे नहीं अने
ए कडी बोल्या करे तेथी ‘अज्ञान’ जाय नहीं अने साचुं ‘मिच्छामी दुक्कडं’ थाय नहीं, परिणामे अज्ञानथी अंध
जीव बनी रहे. पोते आधुनिक केळवणी लीधी होय, वळी सामाजिक प्रतिष्ठा कांईक सारी होय तो पोते
‘अज्ञानी’ छे एम माने नहीं पोताने डाह्यो माने एटले तेने तो अज्ञान टाळवानुं बने ज क्यांथी? पण जीवनुं
यथार्थ स्वरूप समज्या वगर (लौकिक केळवणी गमे तेटली लीधी होय तो पण) जीव अंशमात्र सुखी थाय नहीं,
अने समये समये अनंत दुःख भोगवे. बहारनी सगवडथी पोते पोताने सुखी माने पण तेथी कांई खरुं सुख
आवी जाय नहीं, केमके पोताना स्वरूपनी अणसमजण ‘अज्ञान’ तो ऊभुं ज छे तेज दुष्कृत छे.
प. ‘कर्यो अतिशय क्रोध’ ए पदमां गंभीर मर्म छे. पोताना स्वरूपनी अरुचि ते जीवनो ‘अतिशय
क्रोध’ छे. जीव ते टाळे नहीं त्यांसुधी पोते सुखी थाय नहीं अने साचुं मिच्छामि दुक्कडं पोताने थाय नहीं.
६. परंतु हुं करी शकुं, पर मारुं करी शके, पुण्यथी धर्म थाय, पुण्यधर्ममां सहायक थाय ए मान्यता ते
संसारनुं बीज छे ते ‘दुष्कृत’ प्रत्ये ज्यां सुधी हेय बुद्धि आवे नहीं त्यांसुधी पर प्रत्येनुं ममत्व अभिप्रायमांथी
पण छूटे ज नहीं माटे दुष्कृतने मिथ्या करवा माटे आत्मानुं साचुं स्वरूप पोते यथार्थ जाणवुं जोईए.
७. ज्यारे जीव पोतानुं यथार्थ स्वरूप समजे त्यारे ज तेने सम्यग्दर्शन प्रगटे छे. सम्यग्दर्शननुं प्रगट
करवुं ते मिथ्यात्वना प्रतिक्रमणनी साची क्रिया छे. [आत्मा अने जीव ए शब्दोनो एक ज अर्थ थाय छे एम
समजवुं.]
८. सम्यग्दर्शन प्रगट करे त्यारे ज भूतकाळमां करेला भावकर्मना निमित्ते आवेला द्रव्य कर्मोने मिथ्या
करनारूं साचुं प्रतिक्रमण