Atmadharma magazine - Ank 010-011
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २००० : पर्युषण अंक : १७१ :
थाय छे. जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करे ते मिथ्यादर्शननुं प्रतिक्रमण छे. सम्यग्दर्शन प्रगट करी पोताना स्वरूपमां
लीन थई चैतन्य स्वरूप आत्माना अनुभवमां स्थिर थाय ते मिथ्याचारित्रनुं प्रतिक्रमण छे. आ यथार्थ
प्रतिक्रमण खरूं ‘मिच्छामि दुक्कडं’ छे. ते धर्मनुं साचुं अंग छे, एम समजवुं.
९. प्रश्न:– सम्यग्दर्शन थतां, पूर्व करेलां दुष्कृतोनुं मिथ्यापणुं शी रीते थाय छे?
उत्तर:– ‘मिथ्या’ कहेवानुं प्रयोजन ए छे के–जेम कोईए पहेलांं धन कमाईने घरमां राख्युं हतुं पछी तेना
प्रत्येनुं ममत्व छोड्युं त्यारे तेने भोगववानो अभिप्राय न रह्यो; ते वखते भूतकाळमां जे धन कमायो हतो ते
नहि कमाया समान ज छे; तेम जीवे पहेलांं कर्म बांध्युं हतुं पछी ज्यारे तेने अहितरूप जाणीने तेना प्रत्येनुं
ममत्व छोड्युं अने तेना फळमां लीन न थयो त्यारे भूतकाळमां जे कर्म बांध्युं हतुं ते नहीं बांध्या समान मिथ्या
ज छे. आ भावे पूर्वनुं ‘दुष्कृत’ मिथ्या थई शके छे. ते भावने साचुं ‘मिच्छामि दुक्कडं’ कहेवामां आवे छे.
१० प्रश्न:– सम्यग्दर्शन प्रथम शा माटे प्राप्त करवुं? सम्यग्दर्शन पामवुं अमने कठण लागे छे. अमे व्रत
पाळीए, जप करीए, तप करीए, घरबार छोडी चारित्र ग्रहण करीए तो धर्म न थाय?
उत्तर:– रत्नत्रयमां सम्यग्दर्शन ज मुख्य छे. सम्यग्दर्शन थवाथी सम्यग्ज्ञान अने सम्यकचारित्र थई शके
छे, सम्यग्दर्शन विना नहीं ज. सम्यग्दर्शन विना बधुं ज्ञान मिथ्याज्ञान छे अने चारित्र बधुं मिथ्याचारित्र छे.
सम्यग्दर्शन विना व्रत, जप, तप आदि पण बधुं व्यर्थ छे. माटे मनुष्य जन्म पामीने सर्वथी पहेलुं सम्यग्दर्शन
धारण करवुं जोईए (जुओ प्रबोधसार श्रावकाचार पा. ९)
११ प्रश्न:– तत्त्वनिर्णयरूप धर्म माटे कोण योग्य छे?
उत्तर:– तत्त्वनिर्णयरूप धर्म तो बाळ, वृद्ध, रोगी, निरोगी, धनवान, निर्धन, सुक्षेत्री, तथा कुक्षेत्री
ईत्यादि सर्व अवस्थामां प्राप्त थवा योग्य छे. जे पुरुष पोताना हितनो वांछक छे तेणे तो सर्वेथी पहेलांं आ
तत्त्व निर्णयरूप कार्य ज करवुं योग्य छे.
तेथी जेने साचा धर्मी थवुं होय तेणे तो ज्ञानीना तथा शास्त्रना आश्रये तत्त्वनिर्णय करवो योग्य छे.
पण जे तत्त्वनिर्णय तो नथी करतो अने पूजा स्तोत्र दर्शन, त्याग, तप, वैराग्य, संयम संतोष आदि बधाय
कार्यो करे छे तेनां ए बधाये कार्यो असत्य छे. माटे आगमनुं सेवन, युक्तिनुं अवलंबन, परंपरा गुरुओनो
उपदेश अने स्वानुभव द्वारा तत्त्वनिर्णय करवो योग्य छे.
द्रष्टिभेद
सम्यग्द्रष्टि अने मिथ्यात्वी बन्ने बहारमां समान क्रिया करे छे. दान–भक्ति आदि समान करे छे, बन्नेने
शुभभाव छे––छतां अंदरनी द्रष्टिमां फेर होवाथी बन्नेने जुदी जुदी ज जातना पुण्य बंधाय छे. मिथ्यात्वीने अंदर
पुण्यनी रुचि अने कर्तापणुं छे तेथी तेने पापानुबंधी पुण्य बंधाय छे, अने सम्यग्द्रष्टिने अंदरमां पुण्यनो नकार
वर्ते छे. शुद्धभावनुं ज लक्ष छे तेथी तेने एवा उत्कृष्ट पुण्य बंधाय छे के जेना फळमां सत्स्वरूप समजवाना
उत्कृष्ट निमित्त मळशे. आ रीते क्रिया समान होवा छतां द्रष्टि भेदे फळमां पण भेद पडे छे. (रात्रि चर्चामांथी)
नि:शंकता

जेनुं वीर्य भवना अंतनी निःसंदेह श्रद्धामां नथी वर्ततुं, अने हजी भवनी शंकामां वर्ते छे तेना वीर्यमां
अनंता भव करवानुं सामर्थ्य पड्युं छे.
भगवाने कह्युं छे के– ‘तारा स्वभावमां भव नथी’ अने जो तने भवनी शंका पडी तो तें भगवाननी
वाणीने के तारा भवरहित स्वभावने मान्यो नथी. जेनुं वीर्य हजी भवरहित स्वभावनी निःसंदेह श्रद्धामां पण
नथी वर्ती शकतुं, भवी छुं के अभवी तेनी पण जेने शंका वर्ते छे; तेनुं वीर्य वीतरागनी वाणीनो निर्णय केम करी
शकशे? अने वीतरागनी वाणीना निर्णय विना तेने पोताना स्वभावनी ओळखाण केम थशे? माटे पहेलांं तो
भवरहित स्वभावनी निःशंकता लावो.