लीन थई चैतन्य स्वरूप आत्माना अनुभवमां स्थिर थाय ते मिथ्याचारित्रनुं प्रतिक्रमण छे. आ यथार्थ
प्रतिक्रमण खरूं ‘मिच्छामि दुक्कडं’ छे. ते धर्मनुं साचुं अंग छे, एम समजवुं.
उत्तर:– ‘मिथ्या’ कहेवानुं प्रयोजन ए छे के–जेम कोईए पहेलांं धन कमाईने घरमां राख्युं हतुं पछी तेना
नहि कमाया समान ज छे; तेम जीवे पहेलांं कर्म बांध्युं हतुं पछी ज्यारे तेने अहितरूप जाणीने तेना प्रत्येनुं
ममत्व छोड्युं अने तेना फळमां लीन न थयो त्यारे भूतकाळमां जे कर्म बांध्युं हतुं ते नहीं बांध्या समान मिथ्या
ज छे. आ भावे पूर्वनुं ‘दुष्कृत’ मिथ्या थई शके छे. ते भावने साचुं ‘मिच्छामि दुक्कडं’ कहेवामां आवे छे.
सम्यग्दर्शन विना व्रत, जप, तप आदि पण बधुं व्यर्थ छे. माटे मनुष्य जन्म पामीने सर्वथी पहेलुं सम्यग्दर्शन
धारण करवुं जोईए (जुओ प्रबोधसार श्रावकाचार पा. ९)
उत्तर:– तत्त्वनिर्णयरूप धर्म तो बाळ, वृद्ध, रोगी, निरोगी, धनवान, निर्धन, सुक्षेत्री, तथा कुक्षेत्री
तत्त्व निर्णयरूप कार्य ज करवुं योग्य छे.
कार्यो करे छे तेनां ए बधाये कार्यो असत्य छे. माटे आगमनुं सेवन, युक्तिनुं अवलंबन, परंपरा गुरुओनो
उपदेश अने स्वानुभव द्वारा तत्त्वनिर्णय करवो योग्य छे.
पुण्यनी रुचि अने कर्तापणुं छे तेथी तेने पापानुबंधी पुण्य बंधाय छे, अने सम्यग्द्रष्टिने अंदरमां पुण्यनो नकार
वर्ते छे. शुद्धभावनुं ज लक्ष छे तेथी तेने एवा उत्कृष्ट पुण्य बंधाय छे के जेना फळमां सत्स्वरूप समजवाना
उत्कृष्ट निमित्त मळशे. आ रीते क्रिया समान होवा छतां द्रष्टि भेदे फळमां पण भेद पडे छे. (रात्रि चर्चामांथी)
जेनुं वीर्य भवना अंतनी निःसंदेह श्रद्धामां नथी वर्ततुं, अने हजी भवनी शंकामां वर्ते छे तेना वीर्यमां
नथी वर्ती शकतुं, भवी छुं के अभवी तेनी पण जेने शंका वर्ते छे; तेनुं वीर्य वीतरागनी वाणीनो निर्णय केम करी
शकशे? अने वीतरागनी वाणीना निर्णय विना तेने पोताना स्वभावनी ओळखाण केम थशे? माटे पहेलांं तो
भवरहित स्वभावनी निःशंकता लावो.