Atmadharma magazine - Ank 010-011
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: १७२ : पर्युषण अंक : भाद्रपद : २००० :
निश्चयथी शुभ भाव पण झेर छे, आत्माना गुणने रोकनार छे तेथी
आत्माना गुणने रोके ते भावने
भलो मानवो ए महा पाप छे.

उत्कृष्ट समाधि मरणनी विधिनी वात छे. नवे पदार्थोमां उत्तम वस्तु एवो जे आत्मा तेना निरावलंबी
स्वरूपमां ठरी जतां देह छूटी जवो ते समाधिमरण छे.
अध्यात्मिक भाषानी अपेक्षाथी एटले अंतरना कथनथी ‘हुं ध्यान करूं छुं, ध्याता छुं के ध्येयनुं लक्ष
राखुं.’ एवा कोई विकल्पथी रहित थईने निर्मळ स्वभावनो आश्रय करीने, सर्वथा आत्मसन्मुख थईने, ईन्द्रिय
अने मनथी संपूर्ण अगोचर एवो जे आत्मा तेनुं ध्यान करीने, विभाव अने विकल्पथी खसीने अंदर ठर्यो एने
ज उत्तमार्थ प्रतिक्रमण जाणवुं जोईए.
जेटलुं ईन्द्रिय अने मननुं अवलंबन होय तेटलो आत्मधर्म नथी, ईन्द्रिय के मनना अवलंबनथी जे
जणाय ते बधुं पर जणाय, तथा जे कार्य थाय ते बधो विकार छे. ईन्द्रिय अने मनना अवलंबनथी जेटलो
छूटयो तेटलो धर्म छे. ईन्द्रिय अने मन होय ते तेना कारणे, पण आत्माने समजवा माटे तेनुं अवलंबन त्रण
काळ त्रण लोकमां नथी–आ त्रिकाळी सिद्धांत छे.
देव, गुरु अने शास्त्र ते बधां पर छे. तेना बोध पर लक्ष जाय ते बधो राग छे. तेमां ईन्द्रिय अने मननुं
अवलंबन आवे छे. आत्मानो बोध परना अवलंबन रहित स्वाश्रये थाय छे. जेटलो स्वाश्रय तेटलो ज धर्म छे.
निश्चय–उत्तमार्थ प्रतिक्रमण. तो पोताना आत्माने ज आश्रये छे. ईन्द्रिय अने मन होय तेनी साथे
संबंध नथी. केवळीने पण ईन्द्रिय अने मन होय छे–पण तेनुं अवलंबन नथी. ईन्द्रिय अने मन तरफना लक्षे जे
भाव थाय ते बधां झेर छे, शुभभाव पण झेर छे. परथी जुदा आत्माना स्वभावनो जेटलो निश्चय कर्यो तेटलो
धर्म छे. जुदापणाना भानथी ज जुदानी शरूआत थाय छे, भेगुं माने तो जुदानी शरूआत थाय नहीं.
लोको कहे– ‘मुंझवण थाय तेवी वात छे.’ तो ए वात ज खोटी छे, जो साची मुंझवण थाय तो
समजणनो मार्ग लीधा विना रहे ज नहीं, तेथी खरेखर तो साची मुंझवण ज थती नथी. मुंझवण थाय तो साचा
उपाय द्वारा मार्ग काढ्या विना रहे नहीं.
निमित्त तरफनुं वलण ते बधो राग छे, सम्यक्मति के सम्यक्श्रुतज्ञान पण ईन्द्रिय के मनना अवलंबने
नथी. आत्माना ज आश्रये छे.
निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण आत्माने ज आधारे छे, ते निश्चय धर्मध्यान तथा शुक्लध्यानमय छे; तेथी
आत्मा अमृत कुंभ छे, अमृतथी भरेलो सुंदर कळश छे, ईन्द्रियो तथा मनथी पार छे, जेटलुं ईन्द्रिय अने मनना
अवलंबने पर तरफ लक्ष जाय ते बधुं झेर छे. आत्माना भान पछी पण परद्रव्यना आश्रये जेटलो भाव थाय
ते बधो झेर छे– आत्माना अमृतकुंभने रोकनार छे.
ज्ञानीने राग विकल्प थाय छतां ‘राग मारुं स्वरूप नहीं, मननुं अवलंबन नहीं, विकल्प नहीं, हुं तो
स्वरूप–शुद्ध पवित्र छुं.’ एवुं जे निश्चयनुं भान ते अमृत छे, तथा जे ज्ञानीना व्यवहारू प्रतिक्रमण ते पण झेर
छे. अंतर स्वरूपमां द्रष्टि होवा छतां जेटलुं अवलंबन पराश्रये जाय ते बधो राग छे, झेर छे.
आत्मा परथी निराळो ‘सहजानंद सहज स्वरूप’ छे, एवा भान पछी स्थिर न रही शके त्यारे वच्चे
व्यवहारू प्रतिक्रमण आवे ते बधो झेरथी भरेलो विषकुंभ छे, अमृत स्वरूपमांथी खसीने ते थाय छे. ज्यां
ज्ञानीना व्यवहार प्रतिक्रमणने पण झेर कह्युं छे, त्यां अज्ञानीनां व्यवहाराभास प्रतिक्रमण तो झेर होय ज, एमां
कहेवानुं शुं?