: १६८ : पर्युषण अंक : भाद्रपद : २००० :
देती नथी. समकीतिनी प्रथममां प्रथम बुद्धि एवी थाय छे के– ‘हुं छूटो छुं–स्वतंत्र छुं.’ तारा स्वतंत्रपणानी एक
वार ‘हा’ तो लाव! हा पाडतां तने परसेवो उतरी जशे–अनादिनी मान्यता फेरवतां अनंतो पुरुषार्थ जोईशे.
स्वतंत्र आत्मतत्त्वना भान वगर कोई साचो त्याग के साधु होई शके नहीं. साचा साधु कोई न होय
तेथी कांई खोटाने साधु न कहेवाय! मान–सरोवरमां मोतीनो चारो चरनार हंस ज होय, पण हंस न होय तेथी
हंसने बदले कागडाने हंस न कहेवाय. सम्यग्द्रष्टिए परवस्तुनो पहेलो ज नकार कर्यो छे के ‘आत्मतत्त्व पोताना
स्वतंत्र स्वभावमां परनी सत्ताने–लूगडानां कटकाने पण पेसवा देतुं नथी.’
जगतना कामोमां एक धंधानी वातमां बीजो न पडे! कंदोईना काममां झवेरी डाह्या न थाय के कुंभारना
काममां वकील डाह्या न थाय; जेना जे काम होय तेमां बीजो हाथ घाले नहीं, पण धर्मनी वातमां तो बधा
नीकळी पड्या, के ‘आ आम होय, अने फलाणुं आम होय’ एम धर्ममां तो बधा मंडी पडे! अहीं तेने कहे छे के–
एला! तने जगतनी कळानी किंमत! तेमां एकनी कळामां बीजो डहापण न करे! अने अहीं धर्ममां ते बधा
पोतानुं ‘डहापण’ घाले! धर्मने भाजी–मूळा जेवी चीज करी मूकी छे; शुं धर्म ते मफतनी चीज छे? अनंत काळे
सांभळवो पण दुर्लभ छे.
अहाहा! संसारना कार्योमां बधुं क्रमबद्ध! तेमां शीरो करवो होय तो पण आडुं अवळुं न करे; अने
धर्ममां तो कहे–पहेलांं क्रिया करो–पछी समजण करीशुं!
पण समज्या वगर क्रिया कोनी?
पहेलांं साची समजण करवी पडशे, ते पहेली समजणथी क्रिया छे.
‘गोळ अंधारे खाय तोय गळ्यो लागे’ ए साचुं–पण पहेलांं गोळ पदार्थनुं ज्ञान तो करवुं पडशेने!
खरागोळने जाणे नहीं, अने कांकरो अथवा छाणानो गोळ मोढामां मूके तो गळ्यो लागे नहीं. तेम आत्मानो
स्वभाव तो शांत छे, पण तेना स्वाद माटे पहेलांं तेनुं ज्ञान करवुं पडशे. सम्यग्दर्शन वगर कदाच कोई कषाय
पातळो पडे तो तेथी आत्माने कांई लाभ थाय नहीं.
एकवार स्वतंत्रतानी वात तो लाव! तुं स्वतंत्र छो. स्वतंत्र थवा माटे ‘हुं स्वतंत्र छुं, कोई परथी हुं
दबायो नथी’ एवी प्रतीति घूंटया वगर साचुं भान होय नहीं. आ वातनी त्रण काळ त्रण लोकमां कोईथी ना
पाडी शकाय तेम नथी. मुक्तिनो मार्ग त्रणे काळ एक ज होय, बीजुं माने तो ते तेना घरनुं छे.
पहेलामां पहेलांं तो सम्यग्द्रष्टि संदेहनो भांगीने भूकको उडाडी दये छे–पछी बीजी वात! स्वतंत्र
स्वभावमां निःशंकता थया वगर स्वतंत्रतानो पुरुषार्थ उपडे नहीं.
वस्तु तो वस्तुस्वभावे जेम छे तेम ज त्रिकाळ पडी छे–वस्तुमां पराधीनता के बंधन नथी. वस्तु
स्वाधीन छे, पण पोतानी स्वाधीनतानी खबर न हती तेथी पराधीनता मानी छे, पण वस्तु पराधीन नथी.
सम्यक् आंखोना ऊघाड विना जगत अनादिथी भींसाई रह्युं छे. पहेलांं तो सत्य वात काने पडवी
अनंतकाळे दुर्लभ छे. अने सत्य काने पड्युं त्यां वच्चे ऊंधी मान्यताना लाकडां नांखी सांभळे, तेमां समजाय
क्यांथी?
‘मारा गुणमां परनो प्रवेश नथी, हुं मारी भूले अटक्यो छुं, मारुं स्वरूप तो सिद्ध समान ज छे’ एवी
श्रद्धाना अभावे स्वभावमां निःसंदेहता आवती नथी, निःशंकता वगर स्वाधीनता प्रगटे नहीं.
अनंतकाळना अंधाराने टाळवा माटे कोदाळी के पावडा न जोईए, पण दीवासळीने घसे त्यां अंधारुं टळी
जाय; तेम अनादिनुं अज्ञान टाळवा माटे बहारनुं कर्या करे तो अज्ञान टळे नहीं––पण–चैतन्यमूर्ति दरियो ज्ञान
प्रकाशथी भरपूर छे तेनी श्रद्धा करी पछी ‘एकाग्रतानो घसारो’ थतां केवळज्ञाननो प्रकाश प्रगट थाय छे.
दिवासळीना नाना टोपकामां प्रकाश प्रत्यक्ष देखाय नहीं छतां माने छे; ते कोईना कहेवाथी के जगत माने
छे माटे मान्युं नथी, पण पोताने बेठुं छे त्यारे माने छे, तेम आत्मा चैतन्य ज्योतज्ञान दरियो तेनी प्रथम श्रद्धा
पोताथी करे अने पछी तेनी एकाग्रताना जोरमां पोते ज परमात्मा थाय छे.
टंकोत्किर्ण एवा ज्ञायक स्वभावनी श्रद्धा थतां ‘हुं परथी