Atmadharma magazine - Ank 010-011
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: १७४ : पर्युषण अंक : भाद्रपद : २००० :
करवा जेवो माने तेनी तो वात क्यां रही?
शुभाशुभ बधा भावो बंधना ज कारण छे, समयसारजीमां कह्युं छे के:–
यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात्।
तत् किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्न धोऽधं किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः।। १८९।।
अहीं निश्चयनयथी शुभभावने झेर कह्यां, तेथी कोई अज्ञानी ऊंधुं समजीने शुभने छोडीने अशुभमां
जाय, तो तेवा अज्ञानीने समजाववा माटे आचार्यदेव कहे छे के:– ज्ञानीने अंतरमां स्वरूपनुं भान छे, पण हजी
स्थिर रही शकतो नथी, त्यारे शुभभावमां आवे छे, ते शुभभावने झेर कह्यां छे, अने ते शुभभाव छोडीने
स्वरूपमां स्थिर थवानुं कह्युं छे, पण शुभभाव छोडीने अशुभमां जवानुं तो व्यवहारे पण कह्युं नथी. ज्यां
आत्माना भानसहित शुभभावरूप व्यवहारू प्रतिक्रमणने पण झेर कह्युं छे तो जेने व्यवहार के निश्चय बेमांथी
एके प्रतिक्रमण नथी अने एकला अशुभमां ज ऊभो छे तेने अमृत कोण कहेशे?
आ आत्माना घरनी वात छे. ते अनादिना अपरिचयने लीधे अघरी लागे, पण अघरी छे नहीं, जेम
नटने दोरी उपर थाळीमां ऊंधे माथे अने ऊंचे पगे चालवुं ते सरळ छे, तेना अनुभवने कारणे ते काम तेने
जराय मुश्केली वाळुं लागतुं नथी, पण बीजाने ते काम अघरूं लागे छे, तेम आत्मानो धर्म पण सहज छे; पण
अनादिथी तेनो परिचय नथी तेथी अघरूं लागे छे, पण परिचय करे तो सहज छे. मुश्केल नथी.
आत्मानो स्वभाव ओळख्या पछी तेमां ठरी शकतो नथी त्यारना शुभभावने झेर कह्युं छे –अहीं
शुभभावने झेर कह्युं छे. तेथी कांई शुभ छोडीने अशुभ करवानुं कह्युं नथी; पण शुभ अने अशुभ बन्ने झेर छे,
आत्मानुं स्वरूप ज अमृत छे तेथी शुभने छोडीने स्वरूपमां ठरी जवानुं कह्युं छे.
• तमारी नकल पांचने वंचावो. •
श्री समयसार कलश–१८९मां अमृतचंद्राचार्य देव आश्चर्यथी कहे छे के:–
‘अरे! स्वरूपनी स्थिरता कराववा माटे अमे शुभ छोडवानुं कहीए छीए, अने ए रीते अमे आ
प्राणीने आगळ आगळ लई जवा मांगीए छीए; तेने बदले आ प्राणी (अज्ञानी जीव) प्रमादी थईने
नीचे नीचे केम पडता जाय छे?’
‘शुभभावथी धर्म नथी’ एम कहीने धर्मना स्वरूपनी ओळखाण आपी छे के शुभभावमां धर्मनी
मान्यता छोडी दे. ‘शुभभावमां छोडी दईने अशुभ कर’ एम कह्युं नथी. निर्मळ पर्याय अंतरमांथी प्रगटे छे,
बहारना आश्रये आवती नथी. शुभभाव बधो परना आश्रये थाय छे, तेमां धर्म नथी.
‘शुभथी धर्म नहीं थाय माटे अशुभ करजे’ एम कहेतां नथी, छतां कोई ऊंधुंं मानीने अशुभमां जाय तो
स्वतंत्र छे. अनंतकाळे दुर्लभ आ मनुष्य देहमां नहीं समजे तो क्यारे समजशे? आ समज्यां वगर जन्म–
मरणनो अंत नहि आवे! धर्म नहीं पामे! शुभभाव करे, तो एवा शुभभाव तो अनंतवार करी चूक्यो. एवा
ऊंचा शुभभाव कर्या के तेना फळमां नवमी ग्रैवेयके अनंतवार जई आव्यो, एवा ऊंचा शुभभाव वर्तमानमां
भरतक्षेत्रे तो कोई करी शके नहीं, ए बधा शुभभाव कर्या छतां आत्माना भान वगर जन्म मरण टळ्‌या नहीं;
केमके धर्मनो अने पुण्यनो बन्नेनो मार्ग जुदो छे.
आचार्य कहे छे के:– अमे शुभ छोडवानो उपदेश स्वरूपमां स्थिरता कराववा आप्यो छे, तो व्यवहार
प्रतिक्रमण छोडीने स्वरूपमां स्थिरता केम करता नथी? शुभ करतां करतां शुद्ध थाय एम त्रण काळ त्रण लोकमां
थतुं नथी, पण शुभनो अभाव करतां शुद्ध थाय छे. अशुभनी तो अहीं वात ज नथी.
अहीं तो जन्म मरणनो अंत लाववानी अपेक्षाए वात छे, अहीं तो धर्म बताववो छे. तेमां शुभ
के अशुभ बन्ने झेर छे.
‘वीतरागे कहेलो व्यवहारनो मार्ग × नवप्रकारे में कदी कर्यो ज नथी.’ आवी भावना करे छे त्यारे पण
विकल्प तो वर्ते छे, छतां द्रष्टिमां नकार वर्ते छे.