Atmadharma magazine - Ank 010-011
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २००० : पर्युषण अंक : १७५ :
ज्यारे धर्मनी वात चालती होय त्यारे शुभ–अशुभ बन्ने छोडवानुं आवे, अने ज्यारे कोईने अशुभथी
छोडाववा पूरती वात होय त्यारे कहेवाय के–भाई! आ पापभाव छोडीने शुभभाव कर, तेथी तने लाभ थशे.
त्यां शुभथी खरेखर तो लाभ नथी, पण प्रथम अशुभथी छोडाववा शुभ करवा कह्युं छे. अशुभना त्याग पूरतो
शुभभाव व्यवहारे उपादेय छे, व्यवहारे उपादेय छे एटले निश्चयथी (खरेखर) उपादेय नथी. जे अशुभमां
ऊभो छे तेने पहेलांं अशुभथी छोडावीने पछी शुभ–अशुभ बन्ने छोडावे छे. अशुभथी छूटीने शुभ करवामां
वधारे पुरुषार्थ नथी, अशुभ छोडीने शुभना फळमां स्वर्गमां अनंतीवार जीव जई आव्यो छे. नरकना भव
करतां स्वर्गना भव अनंतवार जीव करी आव्यो छे; अहीं धर्मनी वातमां तो शुभ–अशुभ बन्ने छोडवानी वात
छे, शुभ छोडवामां अनंतो पुरुषार्थ छे.
आ नियमसारनी ज प० मी गाथानी टीकामां आव्युं के:– जेटली मोक्षमार्ग–सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी
निर्मळ पर्याय ते पण व्यवहारे आदरणीय छे, निश्चयथी तो शुद्ध स्वरूप ज आदरणीय छे.
नव प्रकार आ प्रमाणे छे.
(१) शुभभाव मनथी कर्यां नथी (२) कराव्या नथी (३) अनुमोद्यां नथी. (४) वचनथी कर्यां नथी
(प) कराव्यां नथी (६) अनुमोद्यां नथी (७) कायाथी कर्यां नथी (८) कराव्यां नथी (९) अनुमोद्यां नथी.
मोक्षमार्ग व्यवहारे आदरणीय छे एटले निश्चयथी आदरणीय नथी.
हवे तो बधुं खुल्लुं मूकाई गयुं छे, अप्रगट कांई राख्युं ज नथी. त्रिकाळ सत्य वात खुल्ले खुल्ली बहार
मूकाई गई छे. मार्ग सहेलो अने सीधो सट छे. समकितथी ते केवळज्ञान सुधी वच्चे क्यांय मूंझवण ज नथी,
सरल मार्ग छे, संसार अने आत्मा बे कटका थई जाय एवो निश्चय मार्ग छे.
टीकाकार कहे छे के:–
आत्म ध्यानाद परमखिलं घोर संसारमूलं ध्यान ध्येय प्रमुख सुतपः कल्पना मात्र रम्यम्।
बुद्धा धीमान् सहज परमान्द पीयूष पूरे निर्मज्जन्तं सहज परमात्मानमेकं प्रपेदे।।
आत्माना ध्यान सिवाय बीजा बधा ध्यान घोर भयानक संसारनुं कारण छे. ध्यान–ध्येय वगेरेना
विकल्परूप तप एटले के ‘हुं ध्यान करूं छुं, हुं पूर्ण शुद्ध स्वरूप छुं’ एवा बधा विकल्प ते कहेवा मात्र सुंदर छे,
एटले के खरेखर तो तेमां कांई माल नथी. आत्माना आनंद स्वरूपना स्वाश्रय, व्यवहारनयनो बधो विषय
व्रत, तप, नियमना बधा विकल्प कल्पना मात्र रम्य (सुंदर) छे–निश्चयथी तेमां कांई लाभ नथी. व्यवहारे लाभ
छे. एम कहेवाय, पण व्यवहार द्रष्टि ज मिथ्या द्रष्टि छे, निश्चय द्रष्टि ज साची द्रष्टि छे. भंगभेद बधो व्यवहार
छे तेमां लाभ मानवो ते अज्ञान छे. साची समजण ए ज धर्म छे, वच्चे कांई पण गोटो घाल्यो तो क्यांय
उद्धारनां टाणां नथी.
टीकाकारनी भाषा कडक छे, थडक खाधा विना चोकखुं कही दीधुं छे.
आ समजीने बुद्धिमान पुरुषो स्वाभाविक परम आनंदरूपी अमृतथी भरेला समुद्रमां डुबेला परम
उत्कृष्ट एकरूप सहज स्वाभाविक आत्मा तेनो अनुभव करे छे.
सहज! सहज! आ सहज शब्द तो हजारो वार वापर्यो छे. हठथी थतुं नथी पण स्वरूपथी ज सहज छे.
सहज कह्युं तेमां पुरुषार्थ नथी एवो अर्थ थतो नथी, पण पुरुषार्थमां सहज छे. हठथी थतुं नथी. एवा अर्थमां
आचार्ये ‘सहज’ शब्द वारंवार वापर्या छे.
साचुं ज्ञान मुंझवण थवा. दे नहीं, नीकाल (समाधान) करी नांखे; राग वखते रागनां निमित्त होय
खरा, पण रागने कारणे निमित्त आव्यां नथी के निमित्तने कारणे राग थयो नथी. सम्यग्द्रष्टिने पूर्ण वीतरागता
थतां वच्चे शुभराग आवे खरो, पण तेनाथी जे धर्म माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. व्रत–तप बधो राग छे, ते
अस्थिरता छे, अस्थिरता सुंदर नथी.
साची श्रद्धाथी आ वात न समजे त्यांसुधी जन्म–मरणनो अंत तो न आवे, पण वर्तमानमां य
समाधिमरण तेने न थाय. साचुं भान होय तेने मरण टाणे स्वरूपनी रमणतामां पंडितमरण थाय ज. मरणनां