Atmadharma magazine - Ank 010-011
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २००० : पर्युषण अंक : १७९ :
पोताना गुणनुं खून करी रह्या छे, अने तेनुं नाम भाव मरण छे. ए रीते बीजो जीव बचे के मरे पण जे
जीवे मारी नांखवानो भाव कर्यो तेणे पोतानी हिंसा तो करी ज छे.
नानाभाई–तमारी वात समजाणी. तमे जे दाखलो आप्यो ते तो अशुभ भावनो आप्यो. पण समज्या
वगरना प्रतिक्रमण करनारे तो कोई जीवने मारवानो भाव कर्यो नथी. तेनुं शुं?
मोटाभाई––कोई जीव पोते बीजाने लाभ–नुकसान करी शकतो नथी, पण पोताना भावमां घालमेल करी
शके छे एम बताववा उपरनो दाखलो आप्यो हतो. जेम एक जीव बीजानुं भूंडुं करी शकतो नथी तेम बीजानुं
भलुं पण करी शकतो नथी. ते बीजा जीवोने दुःख न देवानो भाव करे तो ते शुभ भाव छे, अने अगवड
आपवानो भाव करे तो ते अशुभ भाव छे. शुभाशुभ भाव मारा छे, ते करवा जेवा छे, एवी जे जीवनी
मजबूत पकड छे ते संसारनुं मूळियुं छे, अने ते छेदवामां न आवे त्यां सुधी संसार ऊभो रहे छे. पोतानुं यथार्थ
स्वरूप समज्या विना ते टळे नहीं. ते मूळियाने शास्त्रीय परीभाषामां मिथ्यात्व कहे छे. मिथ्यात्व तेज संसार
छे–तेज परिग्रह छे. अने तेमांथी पाछुं फरवुं ते मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण छे.
नानाभाई–तमारुं कहेवुं हुं समज्यो–तमे एम कहेवा मागो छो के:– (१) एक वस्तु बीजी वस्तुनुं कांई
करी शके नहीं अने तेथी लाभ नुकसान करी शके नहीं. जीव अने अजीव पण वस्तुओ छे तेथी जीव पुद्गलनुं के
बीजा जीवनुं कांई करी शके नहीं, पुद्गल जीवने कांई लाभ नुकसान करी शके नहीं.
(२) ए प्रमाणे मान्यता थतां जगतना अनंता पदार्थो उपरनुं पोतानुं स्वामीत्व जीव ऊंधाईथी मानतो
ते टळी जाय छे.
(३) दरेक जीव पोताने ज पोताना भावथी लाभ नुकसान करी शके.
(४) जो पोतानुं स्वरूप समजे तो पोताने लाभ थाय. अने साची समजण करवी तेने तमे ‘मिथ्यात्वनुं
प्रतिक्रमण’ कहो छो. आ वात बराबर छे?
मोटाभाई–हा, तमे कह्युं ते बराबर छे, पण पोतानुं स्वरूप समजवुं एम कहेवाथी स्वरूप समजाय नहीं;
माटे तेनो उपाय जाणवो जोईए.
नानाभाई–ए वात खरी छे. ते माटे शुं उपाय छे ते समजावो.
मोटाभाई––प्रथम आत्मज्ञानी पुरुष पासेथी आत्मानुं स्वरूप बराबर समजवुं जोईए. आत्मा त्रिकाळी
अखंड शुद्ध चैतन्य चमत्कार मात्र ध्रुव रूप छे. मात्र तेनी वर्तमान वर्तती अवस्थामां क्षणे क्षणे ते नवो विकार
करे छे. ते तरफ लक्ष गौण करी त्रिकाळी–ध्रुव–चैतन्य स्वरूप तरफ लक्ष आपे तो सम्यग्दर्शन प्रगटे छे, अने
सम्यग्दर्शननुं प्रगट करवुं ते मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण छे; माटे आ संबंधे विचार करी–सत्यासत्यनो निर्णय करी
सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं.
नानाभाई–प्रतिक्रमणनो पाठ केटलाक बोले छे तेमां नीचे प्रमाणे बोलतां सांभळ्‌युं छे:– ‘मिथ्यात्वनुं
पडिकमणुं–अव्रतनुं पडिकमणुं–कषायनुं पडिकमणुं–– ‘प्रमादनुं पडिकमणुं’ तो पहेलांं मिथ्यात्वनुं पडिकमणुं न
करीए अने बीजां करीए तो केम?
जेम जेम मति अल्पता, अने मोह उद्योत; तेम तेम भव शंकता, अपात्र अंतर ज्योत.
(श्रीमद् राजचंद्र)
जेनी मतिमां अल्पता छे, ज्ञानमां विवेक नथी, मोह उद्योत एटले पर उपर जेनुं वजन छे, अनंत पूर्ण
ताकातरूपे हुं छुं तेनो विश्वास नथी, काळ, क्षेत्र ने कर्म नडे छे एम पर उपर नाखे छे, तेने भवनी शंका थाय छे.
‘मारा पुरुषार्थथी हुं स्वतंत्र आत्मतत्त्वनो मोक्ष मेळवी शकुं छुं’ तेनी श्रद्धा न आवे, राग तोडवो ते मारा
हाथनी वात छे एम जेने बेसे नहि ते अपात्र अंतर ज्योत छे.
हुं आत्मतत्त्व एक क्षणमां अनंत पुरुषार्थ करी अनंतकाळनी मूंझवण तोडनार छुं, कारण के हुं अनंत
वीर्यनी मूर्ति छुं, एम जेने बेसे तेने अनंत संसार होतो नथी. (समयसारजी गाथा ३३ना प्रवचनमांथी)