Atmadharma magazine - Ank 010-011
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: १८० : पर्युषण अंक : भाद्रपद : २००० :
मोटाभाई–मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण थया विना अर्थात् सम्यग्दर्शन प्रगट कर्या विना कोई जीवने साचा व्रत न होय.
बालव्रत–बालतप होय पण बालव्रत के बालतप कांई धर्म नथी ए तो अधर्म छे. एटले के मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण
थया विना बीजुं कोई प्रतिक्रमण होई शके ज नहीं. आ कारणे आत्मानुं स्वरूप समजवानी घणी जरूर छे.
नानाभाई––तमे कह्युं ते बराबर छे. अमारा जेवा युवकोए पोतानुं कार्यक्षेत्र बदलवानी जरूर छे. साची
समजण करी लेवानी जरूर छे. सम्यग्ज्ञाननी परबो दरेक ठेकाणे बेसाडवानुं काम खास करीने करवुं जोईए.
मोटाभाई–युवक अने वृद्ध ए शरीराश्रित अवस्थाओ छे. जीवथी शरीर परवस्तु छे माटे ते परवस्तु
तरफनुं लक्ष छोडी दरेक जीवे पोतानुं स्वरूप समजवा प्रयास–सत्य पुरुषार्थ करवो जोईए अने पोताना स्वरूपमां
स्थिर रहेवुं जोईए. स्थिर न रही शके त्यारे पोतामां अशुभ भाव न थाय ते माटे ज्ञाननी रुचि वधारवा
प्रयास करवो जोईए. तेवा भाव जगतना जीवो प्राप्त करी शके ते माटे सम्यग्ज्ञाननी परबो स्थळे स्थळे मंडाय,
पोषाय अने वृद्धि पामे तेवी भावना भाववी जोईए.
नानाभाई–युवक अने वृद्ध ए शरीराश्रित अवस्था छे ए वात बराबर छे. बधा जीव अनादिना छे
तेथी कोई नानुं मोटुं नथी. माटे सर्व जीवे पोतानुं स्वरूप समजी पोतानुं अज्ञान टाळवा मथवुं जोईए,
मिथ्यादर्शन टाळवुं जोईए. ए प्रमाणे जे करे तेने ज साचुं प्रतिक्रमण होई शके ए वात बराबर छे. आहारना
त्यागनी अमुक वखत माटे प्रतिज्ञा लेवी ते सम्यक तप नथी केमके जेने पोताना स्वरूपनी खबर नथी तेने तो
बाळतप होय छे, एम भगवाने डांडी पीटीने कह्युं छे माटे मारे मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण प्रथम ज करवुं जोईए. ए
हुं समज्यो. मारा मित्रोने पण साचुं प्रतिक्रमण करवा माटे समजाववा प्रयत्नो करीश.
मोटाभाई–सारुं! आ वखते तमे अने बधाओ प्रतिक्रमणनुं साचुं स्वरूप समजो अने भगवानना
साचा अनुयायी थाओ, नामना अनुयायी मटी जाओ; एवी मारी पण भावना छे.
दरेक पदार्थनी अवस्था थाय छे ते आत्माना ज्ञाननी पर्यायथी जुदी ज छे, ते वात चाले छे.
रस:– रस ते जडनी अवस्था छे. रस जीभने अडे छे माटे रसनुं ज्ञान थाय छे एवुं नथी; पण ते टाणे
आत्माना ज्ञाननी ते जातनी अवस्था छे. रस तो जड छे ते कांई जाणतुं नथी. अने ज्ञान बधुं जाणे छे माटे
ज्ञानने अने रसने जुदापणुं छे एम श्री जिनदेवे कह्युं छे.
ज्ञानमां जेवी जाणवानी अवस्था थई, तेवा ज रसनी सामग्री ते वखते जीभने अडे, पण आत्मानुं ज्ञान
तेनाथी थयुं नथी. आत्मानुं ज्ञान आत्माथी थयुं छे. ज्ञाननी ते टाणांनी अवस्था थई छे, ज्ञान अने रस बन्ने
स्वतंत्र छे. जीभ अने रस ए बन्ने जडनी अवस्था छे, ते वडे ज्ञान जाणतुं नथी. ज्ञाननो ज पोताथी जाणवानो
स्वभाव छे. ज्ञानगुण पोताना कारणे परिणमे त्यारे सामे ते ज जातनी वस्तु होय, छतां रसने कारणे ज्ञान
नथी के ज्ञानने कारणे रस नथी.
अहा! केटली स्वतंत्रता! रसनी अवस्था जुदी छे, आत्माना ज्ञाननी अवस्था जुदी छे, एम श्री जिनदेवे
जोयुं छे. परने कारणे मारा ज्ञाननी अवस्था नथी, ‘स्व’ थी अवस्था थई छे, एम जाणीने ‘पर’ थी उदास रहेवुं
(ज्ञान ज करवुं) तेमां सारा नरसापणुं करवानुं स्वरूप ज्ञाननुं नथी. आत्मा तो जाणे, कांई करे नहीं.
सर्वत्र ज्ञानुं ज चमकवुं छे.
कोई जीव परने भोगवी शकतो तो नथी, पण कोई परनुं वर्णन पण करी शकतो
नथी; मात्र पोते परनुं जे ज्ञान कर्युं छे तेनुं (पोताना ज्ञाननुं) वर्णन करी शके छे.
ज्ञानगुण सिवाय एके गुणनुं वर्णन थई शकतुं नथी; सुख गुणनुं वर्णन करी शकातुं
नथी पण जे ज्ञाने सुखगुणने नक्की कर्यो छे ते “सुखगुणना ज्ञाननुं” वर्णन करी शके छे.
आ रीते ज्ञान खरेखर पर–प्रकाशक नथी पण स्व–पर्याय (ज्ञाननी अवस्था) ने प्रकाशे
छे. आ रीते ज्ञाननो ज बधे चमत्कार छे अने ज्ञान ए ज आत्मानी विशिष्टता छे.