: भाद्रपद : २००० : पर्युषण अंक : १८१ :
पर वस्तुमां सारुं नरसुं समयसार पान ४७० उपर
मानवुं एज संसार छे तथा परमपूज्य सद्गुरुदेवनुं व्या–
परने कारणे मने ज्ञान थयुं ख्यान ता. २१–६–४४ अषाड
एम मानवुं ते ज श्री असिआ उसाय नमः सुद १ बुधवार
सारुं नरसुं कहेवुं कोने? पर वस्तुमां कांई ‘आ सारुं’ के ‘आ खराब’ एम लख्युं नथी; तेमज ज्ञाननो
स्वभाव सारुं नरसुं करवानो नथी. पर वस्तुमां सारुं नरसुं मानवुं ए ज संसार छे, तथा परने कारणे मने
ज्ञान थयुं एटले के मारी अवस्था पराधीन थई एम मानवुं ते ज परिभ्रमणनुं कारण छे.
रस पर छे, तारो स्वभाव तारामां छे, रसमां गृद्धि करवी ते मूढता छे, रस जडनी अवस्था छे ते कांई
जाणतुं नथी अने ज्ञान बधुं जाणे छे तेथी ज्ञान अने रस जुदा छे, एम जिनदेवे कह्युं छे.
प्रश्न:– ज्ञानीओ रस खातां–पीतां नहीं होय?
उत्तर:– ज्ञानी चक्रवर्ती होय, पण हजी राग छे त्यां सुधी खाय–पीए खरा, छतां अंतरमां भान छे के
‘आ राग मारुं स्वरूप नथी, मारो आत्मा पवित्र आनंदमूर्ति छे, आ बधा संयोग पूर्वना कारणे छे. अवस्थामां
राग छे ते मारा पुरुषार्थनी वर्तमान नबळाई छे, ते राग के वर्तमान पुरुषार्थनी नबळाई मारुं स्वरूप नथी, पर
वस्तु मारी नथी, पर वस्तुथी मने राग नथी के पर वस्तुथी मारुं ज्ञान नथी. तेम ज मारा स्वभावमां आनंदनी
कचाश नथी, आवुं अंतर स्वरूपमां ज्ञानीने भान छे; ज्यारे अज्ञानी बहारमां त्यागी थईने बेठो होय, पण
अंदरमां ‘परवस्तुने कारणे राग थतो’ एम मानतो होय के परने कारणे ज्ञान मानतो होय ते अज्ञानी छे, तेनो
त्याग साचो नथी.
स्पर्श:– सुंवाळो के कर्कश वगेरे बधा स्पर्श ते जड–परमाणुनी अवस्था छे, ते स्पर्शने कारणे आत्मानुं
ज्ञान नथी. ज्ञान तो स्वतंत्र स्वभाव छे, ते टाणे ज्ञान विशेषरूपे परिणमे छे, स्पर्श ते जडनी अवस्था छे, मारा
ज्ञाननी अवस्था मारा अंतरथी परिणमे छे. स्पर्शना कारणे मारा ज्ञाननी अवस्था थती नथी, एम ज्ञानीने
ज्ञाननुं अने स्पर्शना जुदापणानुं भान छे.
कबीरनी एक वात आवे छे के, एकवार ते फरवा नीकळ्या, अने लोको सूतेला, त्यारे तेमणे कह्युं छे के:–
“सुखीओ सब संसार, खाय पीय के सूए;
दुःखीओ दास कबीर, जब जागे तब रूए.”
आ बधो संसार सुखी लागे छे, के खाई पीने सूता छे, अने हुं ज दुःखी छुं–एटले के जागीने जोउं छुं त्यां
मारो एकेक समय जाय छे ते अनंत जन्ममरण टाळवानां टाणां चाल्या जाय छे. मने जन्ममरण टाळवानी
चिंता लागी छे, अने आ लोकोने जन्ममरण टाळवानी चिंता लागती नथी तेथी सूता छे, एम कबीरे वैराग्यथी
कहेल छे.
उनाळानी ऋतुमां बे रूपियानी शेर वाळी केरी खाईने बे मणनी रेशमी तळाईमां सूंवाळा स्पर्शना
भोगवटामां पड्यो होय अने तेमां शांति माने; पण स्पर्शथी आत्माने शांति अने ज्ञान थतां नथी, आत्माने
शांति अने ज्ञान तो अंदरनी एकाग्रताथी थाय छे.
रेशमी गाडलांने तो बिचारांने खबर पण नथी के पोते कोण छे अने केवी अवस्थामां छे, तेनो
जाणनारो आत्मा छे, पण आत्मानुं ज्ञान तेनाथी थतुं नथी. स्पर्श ते जड छे, ते कांई जाणतुं नथी अने ज्ञान ते
चेतनस्वरूप छे ते बधुं जाणे छे, माटे स्पर्श अने ज्ञान बन्ने चीज जुदी छे, एम श्री जिनदेव कहे छे.