Atmadharma magazine - Ank 010-011
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: १८२ : पर्युषण अंक : भाद्रपद : २००० :
कर्म:– याद राख! के कर्मो तो जड छे, तेना कारणे ज्ञाननी अवस्था नथी; पण ते टाणांनी ज्ञाननी स्व–
पर प्रकाशकपणानी शक्तिमां कर्मनी अवस्था जाणनार ज्ञाननी ज पर्याय खीली छे. कर्मने जाणवानो ज्ञाननो
स्वभाव छे, कर्मने लईने ज्ञान जाणतुं नथी, ज्ञान तो ज्ञानने लईने थाय छे.
ज्ञानावरणीय कर्म:– कर्म ते ज्ञान नथी, केमके कर्म तो अचेतन छे, ते किंचित् मात्र जाणता नथी, अने
ज्ञान बधुं जाणे छे. ते ज्यारे ज्ञानमां कर्मनुं लक्ष कर्युं के ‘ज्ञानावरणीय कर्म आडुं आवतुं हशे, माटे ज्ञान नहीं
खीलतुं होय?’ तेने कहे छे के, सांभळ! तारा ज्ञाननी ते टाणांनी अवस्था ज स्व–परने जाणनारी छे, तेथी ते
कर्मने जाणे छे, त्यां तारा ज्ञाननुं सामर्थ्य छे; तें तारा ज्ञाननी अवस्था तरफ न जोतां कर्म उपर लक्ष कर्युं अने
तारा ज्ञाननी अवस्थानी प्रतीत न करी ते द्रष्टिनी ज भूल छे.
कोई कहे के:– दाट्यां कर्म केवां आवशे–ते कोण जाणे? तो तेने कहे छे के:– जे वखते उपरनो विचार
आव्यो ते वखते तारा ज्ञानमां द्विरूपता थई, एक तो तारा ज्ञाननुं ज्ञान, अने बीजुं कर्मनुं ज्ञान, ए बन्नेनुं तें
ज्ञान कर्युं. कर्म तारा ज्ञानने रोकतुं नथी, कर्म तो तारा ज्ञाननुं ज्ञेय छे. ज्ञेय वस्तु ज्ञानने रोके नहीं.
ज्ञानावरणीय कर्म जड छे. ते ज्ञानने रोकतुं नथी, पण ज्ञेय छे. जो ज्ञेयवस्तु ज्ञानमां नडे तो केवळीने लोकालोक
ज्ञेय छे ते तेने नडवां जाईए, पण तेम बनतुं नथी केमके ज्ञानने–ज्ञेय वस्तु नडती नथी.
शरीरमां रोग आवे त्यारे ‘आ असाता केम?’ एम जेने थाय छे ते पोताना ज्ञाननी ते टाणांनी विशेष
अवस्थानो नकार करे छे. तुं तो ज्ञान ज करनार छो; शरीरमां असाता आवी ए तारा ज्ञाने जाण्युं, त्यां
जाणवामां असाता क्यां नडी? साता सारी अने असाता खराब ए वात पण साची नथी.
आत्मानो स्वभाव ज्ञान तेमां जे साता–असाता जणाय ते ज्ञाननी ते टाणांनी सामर्थ्यशक्ति छे, अने ते
ज्ञाननी शक्ति तरफ लक्ष न करतां ‘पर वस्तु ज्ञानमां आवी माटे मारा विचार फर्या’ एम जे माने छे ते ज्ञेयने
कारणे ज्ञाननी अवस्था माने छे, एटले ज्ञान अने ज्ञेयनी एकता माने छे ते ज अधर्म छे; अने ते मान्यता फरी
के हुं तो जाणनार ज छुं. (तो ए धर्मनुं कारण छे.) आमां मान्यता ज फेरववानी छे, बहारमां कांई करवानुं
नथी. वारंवार आ ज श्रवण, आ ज मनन अने आ ज श्रद्धाना घा पडवा जोईए; वारंवार वस्तुनुं स्वाध्याय
ध्यान करवुं जोईए, आनुं ज श्रवण मनन जोईए.
कोई कहे के पूर्वे में घणां क्रोध, कषाय कर्यां हशे, माटे वर्तमानमां क्षमा रहेती नथी, तो ते वात खोटी छे.
वर्तमानमां तेणे शुं कर्युं? कर्मनुं मात्र ज्ञान ज कर्युं छे. ज्ञाननो स्व–पर प्रकाशक स्वभाव छे. ज्ञाननी ते टाणांनी
अवस्था ते ज याद आवे एवी हती. तारी ते अवस्थानुं ज्ञान ज करने! कर्म तो ज्ञेय छे, जड छे, ते कांई पण
जाणतां नथी अने आत्मानुं ज्ञान तो बधुं जाणे छे. भगवान जिनदेव कहे छे के, कर्म अने आत्मा तद्न जुदां छे.
ज्ञान अने कर्म जुदां छे ते ज्ञान करने!
अवस्थाद्रष्टिए भूमिका अनुसारे रहेतो
निमित्त नैमित्तिक संबंध
द्रष्टि निमित्तने स्वीकारती नथी, पोतामां थतां रागद्वेषने स्वीकारती नथी, अरे!
पोतामां थती निर्मळ पर्यायने पण स्वीकारती नथी. द्रष्टिनो विषय अभेद, अखंड, एक
आत्मा छे; तेमां भेद पडे ते भेद जे द्रष्टिनो विषय थतो नथी, पण अवस्थानो विषय थाय
छे. एटले द्रष्टिमां रागद्वेष छे ज नहि, ज्ञानमां ते ज्ञेय छे, चारित्रनी अपेक्षाए ते झेर छे.
द्रष्टिनी अपेक्षाए रागद्वेष जे ज्ञानीने थाय छे ते निर्जरा अर्थे छे. जेटली जेटली निर्मळ
पर्याय ज्ञानीने वधे तेटला तेटला प्रमाणमां नैमित्तिक भाव अने पर निमित्त छूटतां जाय
छे, एवो निमित्त नैमित्तिक भावनो संबंध छे.