Atmadharma magazine - Ank 010-011
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: १८४ : पर्युषण अंक : भाद्रपद : २००० :
अधर्म द्रव्य:– ए पण धर्मास्ति द्रव्यनी माफक चौद ब्रह्मांडमां व्यापेलुं अरूपी, अजीव सर्वज्ञ भगवाने
जोयेलुं द्रव्य छे, ते अचेतन छे कांई जाणतुं नथी, तथा ज्ञान बधुं जाणे छे, माटे जिनदेव कहे छे के:– ज्ञान अने
अधर्म द्रव्य त्रिकाळ जुदां छे.
धर्म अने अधर्म बन्ने वस्तु सर्वज्ञना ज्ञानमां त्रिकाळी सिद्ध थई गयेल छे. ते तारा ज्ञानमां आवे त्यारे
ते तारा ज्ञाननी ज अवस्था छे, धर्म के अधर्म द्रव्यने कारणे तारुं ज्ञान नथी.
काळ द्रव्य:– आ अजीव अरूपी अनंतगुणनो पिंड वस्तु छे; काळाणु लोकाकाशना एकेक प्रदेशे एकेक
रहेलां छे, ते असंख्याता काळाणुओ छे, अचेतन छे, ते तद्न जाणतां नथी अने ज्ञान बधुं जाणे छे, माटे ज्ञान
जुदुं छे अने काळ द्रव्य जुदुं छे.
केटलाक काळ स्थिति पाके त्यारे मोक्ष थाय एम माननारा छे. काळ स्थिति तारा पुरुषार्थथी पाके छे. तुं
पुरुषार्थ कर तो काळस्थिति पाकेली ज पडी छे. जेम चोखानी गुण भरी होय त्यारे ‘आ चोखा क्यारे पाकशे?’
एम कोई पूछे नहीं, पण तपेलामां नाखीने चूला उपर मूकया होय त्यारपछी ‘हवे केटली वार लागशे?’ ए
जोवानुं रहे; तेम आत्माना स्वभावनी श्रद्धा करे, ज्ञान करे तो त्यारपछी स्थिरता करतां केटलो वखत लागशे ते
जोवानुं रहे. पण ज्ञानना स्व सामर्थ्यनी प्रतीत न करतां काळ नडे ए लाव्यो क्यांथी? काळ आत्माना
स्वभावमां छे ज नहीं. काळने याद करवानुं सामर्थ्य तारा ज्ञाननुं छे, काळद्रव्य जगतनी त्रिकाळी अचेतन वस्तु
छे, अने आत्मा ज्ञानस्वभावी वस्तु छे, काळद्रव्यथी ज्ञान थयुं नथी. काळ अने ज्ञान बन्ने जुदां छे एम श्री
जिनदेवे कह्युं छे.
दरेक वस्तु पोताना कारणे पलटे छे, त्यारे काळ तो निमित्त छे–मात्र हाजर छे. काळ मने नुकसान करे
एम माननार आत्माना स्व–पर प्रकाशक ज्ञानगुणनी प्रतीत करतो नथी. स्वभावनुं भान ते ज मोक्ष छे, अने
स्वभावने पराधीन मान्यो ते ज संसार छे.
‘मारे केटलो काळ बाकी हशे!’ एवी कल्पना वखते पण ज्ञाननुं ज सामर्थ्य आव्युं छे. ‘सर्वज्ञ भगवाने
मारो केटलो काळ जोयो हशे?’ एम कल्प्युं त्यां शुं कर्युं? ते सांभळ! :–
एक तो सर्वज्ञना ज्ञाननी स्व–पर प्रकाशक शक्ति तारा ज्ञानमां याद करी छे, ते तारा ज्ञाननी तने
प्रतीति नथी तेथी तने एम थाय छे के ‘भगवाने मारो काळ घणो जोयो हशे तो?’ एम पर उपर लक्ष जाय छे,
त्यां तारा ज्ञानमां तें काळने, सर्वज्ञने अने तारी पर्यायना सामर्थ्यने याद कर्यां छे.
प्रभु! तारी प्रभुता समये समये तारी पर्यायमां ज भरी छे. तारी पर्यायनुं स्व–पर प्रकाशकपणानुं
सामर्थ्य छे ते सामर्थ्य न मानतां ज्ञेय साथे एकत्व बुद्धि माने छे ते बंधमार्ग छे. ज्ञेयने कारणे नुकसान मान्युं
तो तें तारा ज्ञाननुं सामर्थ्य मान्युं नथी. ज्ञेयने कारणे रागद्वेष मान्यां तेने राग–द्वेष थया विना रहेशे नहीं. जेवी
जेनी मान्यता तेने अनुसरीने ज वर्तन थाय छे.
मारा ज्ञाननी स्वाधीन पर्यायने कोई रोकवा समर्थ नथी. ‘भगवान सर्वज्ञ छे, तेमने भव नथी, राग–विकार
नथी’. एम सर्वज्ञना स्वरूपनो जे ज्ञाने निर्णय कर्यो, तेने मारामां भव छे के रागद्वेष छे, एम आव्युं क्यांथी?
‘सर्वज्ञने भवनो अभाव छे, रागद्वेषनो अभाव छे. त्रणकाळ, त्रणलोकने एक समयमां जाणे छे’ अने
मारुं स्वरूप पण सर्वज्ञ समान ज छे. एम मारा ज्ञाननी पर्यायमां निर्णय कर्यो तो तेमां पण भव नथी,
रागद्वेष नथी एवो मारो स्वभाव छे, एम पोताना ज्ञाननी प्रतीति न आवतां जे ज्ञेय उपर ढोळी दे छे, तेने
पोताना स्व–पर प्रकाशक स्वभावनी प्रतीति नथी.
आकाश:– उपर देखाय छे ते आकाश द्रव्य नथी, पण जडनी अवस्था छे. आकाश अनंत छे, अरूपी,
अजीव द्रव्य छे. आवुं आकाशनुं ज्ञान ते तारा ज्ञाननी स्वत: पर्याय तेटली, तेवडी अने तेवी ज छे. जे ज्ञान
एक पर्यायमां अनंतु जाणे, तो ते ज्ञाननुं सामर्थ्य केटलुं? एम पोताना ज्ञाननुं माहात्म्य आववुं जोईए.
आकाश द्रव्यने कारणे तारुं ज्ञान नथी, तारो ज्ञान स्वभाव जुदो छे; अने आकाश द्रव्य जुदुं छे. एम श्री
जिनदेवे कह्युं छे.
परिषह–बाह्य संयोगमां समभाव राखीने शुद्ध भावमां वधता जवुं ते ज परिषह छे, अने ते वखतनो
बाह्य संयोग ‘परिषह निमित्त’ छे; आ रीते उपसर्ग के परिषह बहारमां नथी पण पोताना भावमां छे.