: १८६ : पर्युषण अंक : भाद्रपद : २००० :
गुण पूरां अने पर्याय अधूरी रही जाय छे. तेमां वस्तुनी ज पूर्णता थती नथी; माटे ते ध्रुवरूप पर्याय छे खरी––
हवे–जो ते ध्रुवरूप पर्याय उत्पादरूप (प्रगटरूप) होय तो ते पर्याय त्रिकाळ छे तेथी मोक्ष पण त्रिकाळ होवो जोईए,
अने तेम थतां संसारनो अभाव थई जाय तेथी ते ध्रुवरूप पर्याय छे; पण ते उत्पादरूप अर्थात् प्रगटरूप नथी.
अहा! वस्तु! वस्तु तो एक समयमां अनंत गुणे परिपूर्ण छे; ज्ञान उपयोगे परिपूर्ण, दर्शन उपयोगे
परिपूर्ण, स्वरूप चारित्रे परिपूर्ण, सहज स्वभाविक आनंदे परिपूर्ण ज छे.
वस्तु अने गुण सामान्य छे, तो तेनुं विशेष पण होवुं ज जोईए. ते विशेष ध्रुवपर्याय छे विशेष ते
सामान्यमांथी छे, निमित्तनी अपेक्षाथी नथी. निरपेक्ष पर्याय सिद्ध न करो तो वस्तु परिपूर्ण सिद्ध थती नथी,
अने जो अपेक्षित पर्याय न मानो तो संसार मोक्ष सिद्ध थतां नथी.
(प) चैतन्य समुद्रमां आनंदनी पर्याय ‘डुबेली प्रगट ज’ पडी छे. तेथी ज्यारे ते पर्यायनुं लक्ष करे त्यारे
थई शके छे; अर्थात् कारणपर्याय तो त्रिकाळ पडी ज छे, कार्य ज्यारे प्रगटावे त्यारे प्रगटी शके छे. (कारण
पर्याय, ध्रुव पर्याय, निरपेक्ष पर्याय, द्रव्यनुं वर्तमान ए बधा शब्दो एकार्थ वाचक छे.)
(६) वस्तु स्वरूपपरमात्मा छे स्वरूप करवानुं न होय. केवळज्ञान वगेरे पर्याय ते कार्य छे, ते
कारणमांथी प्रगटे छे. केवळ के मोक्ष करवां ते स्वरूप नथी, स्वरूप तो त्रिकाळ छे. सम्यग्दर्शननो विषय केवळ के
मोक्ष नथी पण स्वरूप छे.
कारण–कार्य ते पण व्यवहारनो विषय छे, सम्यग्दर्शननो विषय नथी. एकलुं स्वरूप ए ज सम्यग्दर्शननो
विषय छे. भूतार्थद्रष्टिमां (सम्यग्द्रष्टिमां) एक ज प्रकार छे. वस्तुस्वरूप ज आवुं छे.
अनेकान्त शुं बतावे छे?
परमपूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीना ता. ३ – ७ – ४ ना व्याख्यान उपरथी
१––अनेकान्त वस्तुने परथी असंग बतावे छे. ‘असंगपणानी स्वतंत्र श्रद्धा ते असंगपणानी
खीलवटनो उपाय छे, परथी जुदापणुं ते वस्तुनो धर्म छे.’
२––अनेकान्त वस्तुने ‘स्वपणे छे अने परपणे नथी’ एम बतावे छे. ‘परपणे आत्मा नथी तेथी
परवस्तुनुं कांईपण करवा आत्मा समर्थ नथी; अने परवस्तु न होय तेथी आत्मा दुःखी पण नथी.’
‘तुं छो’ छो तो परपणे नथी अने परवस्तु अनुकूळ होय के प्रतिकूळ होय तेने फेरववा तुं समर्थ नथी.
बस! आटलुं नक्की कर तो श्रद्धा, ज्ञान अने शांति तारी पासे ज छे.
३––अनेकांत वस्तुने पोतापणे सत् बतावे छे. सत्ने सामग्रीनी जरूर नथी, संयोगनी जरूर नथी. पण
सत्ने सत्ना निर्णयनी जरूर छे के ‘सत्पणे छुं–परपणे नथी.’
४––अनेकान्त वस्तुने एक–अनेक बतावे छे. एक कहेता ज अनेकनी अपेक्षा आवी जाय छे. तुं तारामां
ज एक छो अने तारामां ज अनेक छो तारा गुणपर्यायथी अनेक छो, वस्तुथी एक छो.
प––अनेकान्त वस्तुने नित्य–अनित्य बतावे छे. पोते नित्य छे अने पोते ज (पर्याये) अनित्य छे.
तेमां जे तरफनी रुचि ते तरफनो पलटो (परिणाम) थाय. नित्य वस्तुनी रुचि थाय तो नित्य टकनारी एवी
वीतरागता थाय अने अनित्य एवी पर्यायनी रुचि थाय तो क्षणिक एवा राग–द्वेष थाय.
६––अनेकान्त ए वस्तुनी स्वतंत्रता जाहेर करे छे. वस्तु परथी नथी, अने स्वथी छे एम कह्युं तेमां ‘स्व
अपेक्षाए दरेक वस्तु परिपूर्ण ज छे’ ए आवी जाय छे. वस्तुने परनी जरूर नथी पोताथी ज पोते स्वाधीन–
परिपूर्ण छे.
७––अनेकान्त एकेक वस्तुमां बे विरुद्ध शक्तिओ बतावे छे. एक वस्तुमां वस्तुपणानी निपजावनारी बे
विरुद्ध शक्तिओ थईने ज तत्त्वनी पूर्णता छे. बे विरुद्ध शक्तिनुं होवुं ते वस्तुनो स्वभाव छे.