: आसो : २००० : १९७ :
सातिशय पुण्य–प्रकृतिओनो अवांछित वृत्तिथी बंध थई जाय छे. तेने तमारे पुण्यनो ईजारो कहेवो होय तो
कहो; पण सम्यग्द्रष्टि जीव तो ते रागभाव–तथा तीर्थंकर प्रकृति बन्नेने उपादेय मानतां नथी.
पहेलो मित्र–आ तो ‘मूके खसतुं तो आवे हसतुं’ एम थयुं. सातिशय पुण्यनुं बीजुं कोई नाम छे?
बीजो मित्र–ते पुण्यने पुण्यानुबंधी पुण्य कहेवामां आवे छे. ‘मूके खसतुं तो आवे हसतुं’ एवुं राग होय
त्यारे सम्यग्द्रष्टिने बने छे, पण तेनो ते मालीक नथी तेथी तेने आव्युं एम पण कही शकाय नहीं. सम्यग्द्रष्टि तो
मात्र तेनो ज्ञाता द्रष्टा छे.
पहेलो मित्र–आत्मस्वरूपथी अजाणने पुण्य थाय तेनुं कांई खास नाम छे?
बीजो मित्र–हा. तेने पापानुबंधी पुण्य कहेवामां आवे छे.
पहेलो मित्र–तेवा पुण्यनुं स्वरूप शुं छे?
बीजो मित्र:–श्रीपरमात्म प्रकाश. अध्याय २ गाथा २० मां नीचे प्रमाणे जणाव्युं छे:–
पुण्णे ण होइ विहवो विहवेण मओमएण मइ–मोहो।
मइ–मोहेणयपावं ता पुण्णं अम्ह मा होउ।।२०।।
पुण्येन भवति विभवो विभवेन मदो मदेन मति मोहः।
मतिमोहेन च पापं तस्मात् पुण्यं अस्माकं मा भवतु।।६०।।
अर्थ:–पुण्यथी घरमां धन थाय छे, धनथी अभिमान थाय छे, अभिमानथी बुद्धि भ्रम थाय छे, बुद्धि
भ्रम थवाथी पाप थाय छे तेथी एवुं पुण्य अमने न हो!
टीकाकार कहे छे मिथ्याद्रष्टि जीवने पुण्यना फळथी प्राप्त थएली संपदाथी अभिमान (घमंड) थाय छे,
सम्यक्त्वादि गुण सहित विवेकी जीवने पुण्य बंध अभिमान उत्पन्न करतुं नथी; तेवा जीवो गमे तेवी
मोटी विभूति पाम्या होय तो पण मद–अहंकारादि विकल्पोने छोडी संपूर्ण पवित्रता प्रगट करे छे.
मिथ्याद्रष्टिओने पुण्यनुं फळ–विभुति–गर्वनुं कारण थाय छे, सम्यग्द्रष्टिओने थतुं नथी.
पहेलो मित्र–तमे कह्युं ते उपरथी तो स्पष्ट थाय छे के जीवने दुःखथी छुटवुं होय तो दुःख शाथी थाय छे
अने ते केम मटे? तेनो सूक्ष्म द्रष्टिथी निर्णय करवो ज जोईए. अनादि काळथी ते भूल चालती आवे छे; पुण्यनुं
स्वरूप बराबर समजवुं जोईए के जेथी पुण्यथी धर्म थाय एवी भ्रमणा टळे अने पुण्यनी मर्यादा केटली छे ते
समजी शकाय–पाप शुं तेमां महा पाप शुं तेनुं स्वरूप समजवुं जोईए ते सिवाय कदी साचुं सुख मळे ज नहीं.
पुण्यनुं स्वरूप न समजे ते पुण्य शी रीते करे? कंईक शुभ भाव थाय त्यारे तेनुं अव्यक्त अभिमान होय ज ‘हुं
परनुं भलुं करी शकुं’ एम मानतो होय त्यारे नम्रता–करुणा बुद्धि होय तो पण परनुं हुं करी शकुं–मारे करवुं ज
जोईए–ए मारी फरज छे–एवी भ्रमणा होवाथी तेने अंदर अव्यक्त अभिमान होय ज.
बीजो मित्र– बराबर छे, तेवां अभिमानने शास्त्रनी परिभाषामां ‘अनंतानुंबंधीमान’ कहे छे.
पहेलो मित्र–ते बराबर छे. केमके जो एकनुं भलुं करी शकाय तो अनंतनुं करी शकाय अने तेथी ते अनंत
परवस्तुनो अभिप्रायमां स्वामी थयो. बधानो सेवक छुं एम माने तो ते भूल छे. सम्यग्द्रष्टि तो जे जे
शुभभावमां जोडाय छे ते कोईना भला माटे नहीं,