: १९६ : आत्मधर्म : १२
आत्म स्वरूपनुं अजाणपणुं ए
ज महा पाप छे. शा माटे?
[नवमां अंकथी चालु] : लेखक : रामजी मा. दोशी
जीवने दुःखथी छूटवुं होय तो दुःख शाथी थाय छे अने ते केम मटे? तेनो सूक्ष्म द्रष्टिथी निर्णय करवो ज
जोईए. अनादि काळथी ते भूल चालती आवे छे. पुण्यनुं स्वरूप बराबर समजवुं जोईए के जेथी ‘पुण्यथी धर्म
थाय’ एवी भ्रमणा टळे, अने पुण्यनी मर्यादा केटली छे ते समजी शकाय. पाप शुं? तेमां महापाप शुं? तेनुं
स्वरूप समजवुं जोईए. ते सिवाय कदी साचुं सुख मळे ज नहीं.
प्रसंग छठ्ठो
पहेलो मित्र–हुं परनुं भलुं बुरुं करी शकुं–सुख दई शकुं ए मान्यता खोटी छे. तेने पाप कहो छो ते बराबर छे.
पण महापाप शा माटे कहो छो? (एटलुं खरुं छे के जीव अपूर्ण अवस्थामां परने सुख दुःख देवानो भाव करी शके.)
बीजो मित्र–ते महापाप छे–तेनुं कारण ए छे के:– (१) जीव बीजानुं कांई करी शकतो नथी, अने पोतानुं
करी शके छे, जो परनुं पण करी शके तो पोते अने पर एक थई जाय; केमके जेम पोतानुं करी शके तेम परनुं करे
तो, पर तो अनंत वस्तुओ छे, एटले पोते अने अनंत परवस्तुओ तेनी मान्यतामां एक ज थया. जेम ते
पोतानो स्वामी छे, तेम पर अनंती वस्तुओनो स्वामी थयो. आ मान्यता अनादिथी चाली आवे छे, अने तेने
ज कारणे पर वस्तुमां ईष्ट–अनिष्टपणुं ते माने छे, ए रीते बधा दुःखोनुं मूळ (जड) होवाथी ते महापाप छे.
पहेलो मित्र–ए तमारी वात हुं समज्यो. तेनो सार हुं कही जाउं छुं. जो तेमां फेरफार होय तो तमे सूचवशो.
बीजो मित्र–भले कहो.
पहेलो मित्र–तमे कह्युं तेनो सार आ प्रमाणे छे.
(१) एक जीव–पर कोईनुं कांई पण करी शके नहीं. (२) पोते पोतामां–विकारी के अविकारी भाव करी
शके. (३) संपूर्ण अविकारी भाव न प्रगटे त्यां सुधी जीवे अशुभ भाव टाळी, शुभभाव करवो–पण ते शुभभावने
धर्म न मानवो. (४) आम करवाथी पर वस्तु जे अनंत छे ते उपरनुं ममत्व अभिप्रायमांथी छुटी जाय छे, अने
तेथी जे दान, दया, तप–पूजा–सेवा वगेरे करे छे ते पोताना अशुभ भाव टाळवा–लोभ कषाय ओछो करवा माटे
करे छे परना भला माटे करतो नथी; एटले पर गमे तेम वर्ते तो पण पोताने राजी के नाराजी थती नथी. (५)
पोते पोतामां स्थिर रहेवा प्रयत्न करे छे. अने न रही शके, त्यारे त्रीजा पेरामां जणावेली मान्यता सहित चोथा
पेरामां जणाव्या प्रमाणे वर्ते छे. तथा जे राग रहे छे, तेमां पोतानुं स्वामीत्व ते मानतो नथी.
बीजो मित्र:–बराबर छे. विशेष चर्चा हवे पछी करीशुं. (बन्ने जुदा पडे छे)
प्रसंग सातमो
आत्म स्वरूपना जाणक सम्यग्द्रष्टि साधक जीवना पुण्यनुं स्वरूप. पुण्यनो ईजारो तेमनो छे?
पहेलो मित्र:– आ बाबतमां विचार करता प्रश्न उठे छे के:– तीर्थंकर नाम कर्म एवुं छे के–जे जीवने ते कर्म होय ते
जरूर वीतराग थाय–माटे जे भावे तीर्थंकर पदनी प्राप्ति थाय–ते भाव शुभ भाव छे तो तेने केम उपादेय न गणवो?
बीजो मित्र:–तमारा प्रश्ननो उत्तर आपवामां तमारी पासेथी नीचेनी बाबतोने जाणी लेवी जोईए के:–
(१) ते शुभभाव मिथ्याद्रष्टिने थाय छे के सम्यग्द्रष्टिने थाय छे? (२) ते भावने सम्यग्द्रष्टि उपादेय–
आदरवालायक एटले के आत्मानुं स्वरूप माने छे के विकार माने छे?
पहेलो मित्र–(१) ते भाव तो सम्यग्द्रष्टिने ज थाय. मिथ्याद्रष्टिने थाय ज नहीं. (२) सम्यग्द्रष्टि ते
भावने निज स्वरूप मानतो नथी–ते भावने जे निज स्वरूप माने तेने तो तेनो भाव थाय ज नहीं.
बीजो मित्र–ए बराबर छे. जे जे तीर्थंकर भगवान थाय छे, तेओ प्रथम पोताना पुरुषार्थथी सम्यग्दर्शन प्रगट
करे छे अने जे राग तेमने रह्यो ते टाळतां जे राग रही जाय तेमां ते भावनुं निमित्त पामीने तीर्थंकर नाम कर्म बंधाय छे.
पहेलो मित्र–त्यारे तो एम थयुं के शुभ भावनो ईजारो सम्यग्द्रष्टिओए ज राख्यो छे.
बीजो मित्र–तेमनो ईजारो तो शुद्धता प्रगट करवानो छे, पण तेमां अपूर्णता होय त्यारे