: २०२ : आत्मधर्म : १२
पदार्थनी रुचि छे ने स्वनी रुचिवाळाने परपदार्थनी किंचित् मात्र रुचि नथी. अस्थिरता होवाथी अल्प
आसकित होय छे, पण द्रष्टिमां तो अभाव ज ईच्छे छे.
८–भडनो दीकरो भवनो भाव राखीने भवमां रखडया करे छे, पण ‘भवनो भाव नथी जोईतो’ एवा
भावे एक पण भव कर्यो नथी. एकवार “भव नहीं, भवनो भाव नहि” एम कहे तो तेने भव होय ज नहीं.
‘मारा स्वरूपमां भव नथी, भवनो भाव नथी हवे भव पण नहीं’ एम भवनो भाव तोडीने एक पण भव
पलटी नांखे तेने भव होय ज नहीं.
९–भगवन्! तुं अनंत काळथी तारा आत्मतत्त्वना भान विना रझळी रह्यो छो, परनी महिमामां स्वनी
महिमा गोटाई गई छे. जोनारे जोनारने जाण्यो नहीं अने पर वस्तुमां सुख मानी बेठो, एथी स्वभावनी
अनंती शांतिनी गुलांट खाईने अनंती आकुळतानुं वेदन करी रह्यो छे.
१०–एला! तने एम नथी देखातुं के आ आशा तो एक एक क्षणे नवी नवी फेरफारवाळी थाय छे; क्षणे
क्षणे पलटी जाय छे ते विकार छे, एकरूप नथी, माटे ते करवा जेवी नथी, पण अंदर त्रिकाळ एकरूप स्वभाव
पड्यो छे तेनी ज प्रतीति करवी पडशे–एम तने नथी लागतुं?
उपर प्रमाणेना दश अद्भुत उपदेश वचनो श्रावण वद १३ थी भादरवा सुद–५ सुधीना आठ दिवसना
सवारना समयसारजी गाथा २–३–४ नां व्याख्यानोमांथी तारव्यां छे. आ उपरांत बपोरे श्री सत्तास्वरूपनुं
व्याख्यान चालतुं–जेमां गृहीतमिथ्यात्व छोडवा माटेनो तथा देव–गुरु–शास्त्र प्रत्येना शुभरागनी हद केटली? ए
बतावनार परम अद्भुत उपदेश आव्यो हतो. अने ए रीते पर्युषणना दिवसोमां परम पूज्य सद्गुरुदेवनी
अद्भुत धर्मवाणीनो लाभ आ बालवृद्ध सौ कोईए उत्साहपूर्वक लीधो हतो. हंमेशां सांजे देरासरजीमां भक्ति
थती–जेमां देवगुरुनी स्तुतिनां स्तवनो थतां स्तवननां फेरवी फेरवीने सुंदर रीते गवडाववामां आवतां पदो भक्तो
घणा ज उत्साहथी झीलता हता, अने पूज्य सद्गुरुदेवना उपकारनी भक्तिना रसमां तरबोळ थई जता हता.
हंमेशां सवारे तथा रात्रे धर्मने लगतां प्रश्नोत्तर थता, जेमां मोटी संख्यामां भाईओ लाभ लेता अने
पोतानी शंकानुं समाधान मेळवता. रात्रे (चर्चा पहेलांं) हंमेशांं प्रतिक्रमण थतुं–जेमां सेंकडो मुमुक्षुओ लाभ
लेता, संवत्वरीना दिवसे ७०० उपरांत भाईओ प्रतिक्रमणमां हता–अने बहेनोमां लगभग ५०० बहेनो हतां.
पर्युषणना दिवसो दरम्यान बे वखत वरघोडो निकळ्यो हतो. जेमां अत्यंत उल्लासथी लगभग बे हजार
माणसोए भाग लीधो हतो.
आ रीते सुवर्णपुरीना धर्मक्षेत्रमां आ वखतना पर्युषण घणा ज उल्लास पूर्वक उजवाया हता. ए
पर्युषणनी शोभानां मूळ तो स्वाध्याय मंदिरमां ज हतां, ए ए मूळ द्वारा आखा वृक्षने जे अद्भुत पोषण
मळ्यां छे ते बहारमां जणाया वगर रह्यां नथी.
परम पूज्य सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी सुवर्णपुरीमां हमेशां धर्मनो उपदेश आपीने शासन पर महान
उपकार करी रह्या छे; तेमनी वाणी सांभळवी ए पण जीवननो लहावो छे. तेओश्रीनी वाणी सांभळनार,
भरतक्षेत्रमां तीर्थंकरनो वियोग छे ए भूली जाय छे. तेमना उपदेशनो मूळ पायो “आत्माना स्वरूपनी साची
समजण” पर रचायेलो होय छे. खरेखर! ए सत्पुरुष पंचमकाळे भरतक्षेत्रमां अजोड धर्मवीर पाक्या छे अने
भरतक्षेत्रमां ए धर्मवीरे धर्मकाळ वर्तावी दीधो छे.
त्रिकाळ जयवंत वर्तो ए धर्मवीर के जेणे शासननो जय जयकार वर्तावी दीधो छे.
मासखमण
अठ्ठाईओ