: २०६ : आत्मधर्म : १२
विषय अंक नं. पानुं
सम्यक्दर्शन सहित अने रहित
दान–शील–तप–भाव ८ १३३
सर्वत्र ज्ञाननुं ज चमकवुं छे १०–११ १८०
साची सामायिक ३ ६
साची समजणनी जरुरियात ४ १८
साची परिक्षा ९ १५७
साची संल्लेखना (साचो संथारो) ६ ९७
सामायिक २ १०
सांभळनाराओए [तत्त्व उपदेशने]
प्रगटावेलुं फळ. ६ ९३
सिद्धनुं स्वरूप १ ५
सुख एटले शुं? ९ १५४
सुवर्णपुरीना समाचार ७ ११४
सुवर्णपुरीमां पर्युंषण पर्वनो
मांगलिक महोत्सव १२ २०१
सौराष्टनो जैनधर्म प्रत्ये फाळो ४ १९
स्पर्श गुण १०–११ १८१
स्मरणमां राखवा योग्य नियमो ७ १११
स्वभावनी रुचिविना रागनी रुचि
टळे नहीं ७ ११४
स्वरूप १०–११ १८५
स्वरूपनी समजण वगर पुण्य अने
पाप चक्र चाल्या करे छे. ९ १५१
स्वरूपनुं श्रवण ते ज बुद्धिनो
सदुपयोग ७ १२१
हिंसानुं स्वरूप. ५ १०
ज्ञप्ति क्रिया भा. १ १ १०
ज्ञप्ति क्रिया भा. २ १ ११
ज्ञप्ति क्रिया भा. ३ १ ११
ज्ञप्ति क्रियानी व्याख्या. ६ ९५
ज्ञाननुं खरुं सामर्थ्य ३ १
ज्ञान सम्यक् क्यारे? ६ २
ज्ञानाभ्यासनी जरूरियात. ७ ११०
ज्ञानीनी भावना ७ ११४
ज्ञानी अने अज्ञानीनुं लक्षण ७ ११५
ज्ञानीनी दशा. ९ १५६
ज्ञान क्रियाभ्याम मोक्ष: १०–११ १८७
ज्ञेयना जुदा जुदा पडखानुं ज्ञान (नय) ६ ९२
आत्मधर्मना उपासकोने
आप एक वर्षथी आत्मधर्मनी उपासना करी रह्या छो, एना बार अंकना
वांचनथी आपने खात्री थई हशे के आ आत्मधर्मनुं वांचन सफळ जीवन
जीववा माटे अमूलुं साधन छे; अने एथी ज आपने नम्र विनति छे के आप
नवा वर्षे ग्राहक तरीके चालु रही आपना स्नेही स्वजनो तथा साधर्मी
संतोए पोताना हृदयकुंडमां वीतरागना
– श्रुत पंचमी (जेठ सुद प) ना पवित्र
चारित्र केवुं होय तेनो अधिकार छे. संयमना
निभाव माटे आहारनी वृत्ति के पंच महाव्रत
पाळवानो विकल्प ए पण निश्चयचारित्रनो भंग छे;
निश्चयचारित्रनुं स्वरूप कहेवाशे.
आ केवळज्ञानीए कहेली वात छे. अने
केवळज्ञान लेनारा आचार्योए आ वात संघरी छे, ते
ज अहीं कहेवाय छे, भार नथी कोईना के आ वात
फेरवी शके.
प्रत्याख्यान:–द्रव्य–क्षेत्र–काळ अने भावे
लागेला दोषोनो त्याग करवो ते प्रत्याख्यान छे, अथवा
समस्त प्रकारना दोषोथी छूटीने स्वरूपमां ज स्थिर
रहेवानी प्रतिज्ञा करवी ते प्रत्याख्यान छे. अने एकवार
स्वरूपनी स्थिरता थई गया पछी तेनाथी खसवुं ते
अप्रत्याख्यान छे.
प्रतिक्रमण:–अप्रत्याख्यानथी पाछुं फरवुं ते
प्रतिक्रमण छे, अर्थात् प्रत्याख्यानमां लागेला दोषोथी
(अस्थिरताथी) पाछा फरीने स्वरूपमां फरी स्थिर थवुं
ते प्रतिक्रमण छे.
मुनि समाधिमरण वखते निर्दोष आहारनी
वृत्तिनो के महाव्रतना शुभभावनो पण त्याग करे छे, तेने
अहीं प्रतिक्रमण कह्युं छे; तेथी शिष्यने प्रश्न ऊठ्यो छे के:–
शिष्यनो प्रश्न:–समाधि वखते तो मुनि
आहारादिनो त्याग करे छे एटले ते प्रत्याख्यान
कहेवाय, तेने बदले तमे तेने प्रतिक्रमण केम कह्युं?
तेनो उत्तर:–समाधि मरण वखते मुनिने
प्रतिक्रमण कह्युं तेनुं कारण–‘जे पोते प्रतिक्रमण न होय
पण प्रतिक्रमण जेवुं होय तेने पण उपचारथी प्रतिक्रमण
कहेवाय छे, तेथी अहीं मुनि जे संथारो करे छे तेनो
उपचारथी प्रतिक्रमण तरीके स्वीकार कर्यो छे.
मुनि समाधि वखते शुं विचारे छे के–“परम
वीतराग दशा सिवाय जे कांई संयम, व्रत के महाव्रत
पाळवानी वृत्ति ऊठे छे ते अमारा पच्चखाणमां भंग
पड्यो छे. अमारुं पच्चखाण तो वीतरागता प्रगट
करीने केवळज्ञान प्रगट करवानुं हतुं;