नहीं; एम प्रथमथी ज पुण्यनो नकार करतो करतो आव्यो छे. ईन्द्रियमां सुख नथी के
ईन्द्रपदमां पण मारुं सुख नथी, मारुं सुख मारा स्वरूपमां छे. मारा आत्माना
सत्त्वनी शक्ति हणाई गई–हीणी पडी त्यारे आ पुण्य बंधाया छे, तेनुं फळ आ
ईन्द्रपद, ए सडेलां तरणां समान छे.
देवाधिदेव तीर्थंकर भगवान क्यां बिराजे छे? प्रथम त्यां ज दर्शन करवा चालो! एम
पोते प्रथम ज तीर्थंकर भगवान पासे दर्शने जाय छे, अने मंडळीने पण साथे लई
जाय छे.
शुभोपयोगना फळमां आ पुण्य बंधाई गया, हवे क्यारे आ टाळीने स्वरूपनी
भावना भावतां भावतां केवळज्ञान पामीए? ते घडीने धन्य छे के जे घडीए
आत्मसाधना पूर्ण करीने केवळज्ञान पामीए!
वीतरागताने रोकनार छे. स्वरूपनी आनंदनी रुचिमां भावना भावतां पूर्ण
वीतरागी न थयो त्यां आ पुण्य बंधाई गया–तेनुं आ फळ छे, अमारा स्वरूपनां आ
फळ न होय! स्वरूपनी साधनामां भंग पड्यो त्यारे पुण्य बंधाई गया–पण अमारी
भावना तो संपूर्ण वीतराग पदनी ज! तेमां वच्चे विघ्न करनार आ पद अमारुं
नथी. आ रीते समकिती जीव पुण्यनो अने पुण्यना फळनो नकार करे छे.