Atmadharma magazine - Ank 012
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २००० : १९१ :
* शाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक *
वर्ष १ : अंक १२ : आसो २०००
“समकितीने ईन्द्रपद
मळे त्यारनी भावना”
[पूज्य सद्गुरुदेवना ता. २३–६–४४–शुक्रवार–
अषाड सुद–३ ना व्याख्यानमांथी]
अरे! मारा स्वरूपनो आनंद साधतो हतो, तेमां भंग पड्यो त्यारे पुण्य
बंधाई गया, अने ते पुण्यनुं आ फळ छे, ते पुण्य मारां नहीं अने आ पद पण मारुं
नहीं; एम प्रथमथी ज पुण्यनो नकार करतो करतो आव्यो छे. ईन्द्रियमां सुख नथी के
ईन्द्रपदमां पण मारुं सुख नथी, मारुं सुख मारा स्वरूपमां छे. मारा आत्माना
सत्त्वनी शक्ति हणाई गई–हीणी पडी त्यारे आ पुण्य बंधाया छे, तेनुं फळ आ
ईन्द्रपद, ए सडेलां तरणां समान छे.
अरे! अमारा अतीन्द्रिय आनंदमां लूंट पडी, त्यारे आ पुण्य बंधाई गया,
अमारा स्वरूपनां आ फळ नथी. नहीं रे नहीं! आ पद अमारुं नहीं. त्रिलोकनाथ
देवाधिदेव तीर्थंकर भगवान क्यां बिराजे छे? प्रथम त्यां ज दर्शन करवा चालो! एम
पोते प्रथम ज तीर्थंकर भगवान पासे दर्शने जाय छे, अने मंडळीने पण साथे लई
जाय छे.
प्रथम साक्षात् तीर्थंकर भगवान पासे जाय छे, पछी शाश्वत प्रतिमाओनां
दर्शन करवा जाय छे; एवी भावना भावे के– अमारो शुद्धोपयोग पूर्ण न थयो, अने
शुभोपयोगना फळमां आ पुण्य बंधाई गया, हवे क्यारे आ टाळीने स्वरूपनी
भावना भावतां भावतां केवळज्ञान पामीए? ते घडीने धन्य छे के जे घडीए
आत्मसाधना पूर्ण करीने केवळज्ञान पामीए!
पाडोशमां ऊकरडो होय पण वाणीओ तेनो धणी न थाय, तेम समकिती
धर्मात्मा ईन्द्रपदनो धणी नथी थतो–नकार करे छे के आ पद मारुं नहि, आ मारी
वीतरागताने रोकनार छे. स्वरूपनी आनंदनी रुचिमां भावना भावतां पूर्ण
वीतरागी न थयो त्यां आ पुण्य बंधाई गया–तेनुं आ फळ छे, अमारा स्वरूपनां आ
फळ न होय! स्वरूपनी साधनामां भंग पड्यो त्यारे पुण्य बंधाई गया–पण अमारी
भावना तो संपूर्ण वीतराग पदनी ज! तेमां वच्चे विघ्न करनार आ पद अमारुं
नथी. आ रीते समकिती जीव पुण्यनो अने पुण्यना फळनो नकार करे छे.
“धन्य छे समकिती
तारा सम्यकत्वने!”