: आसो : २००० : १९३ :
धा लागी छे एवो शिष्य श्रीगुरु प्रत्ये कहे छे के:–
‘प्रभु! मने परनी जरूर? मारा आत्माने परचीजना लोहवाटे संतोष के माराथी संतोष? ‘संतोष’
एवी कोई चीज मारामां छे के नथी?’ अहीं शिष्यने त्रण वात ख्यालमां आवी छे.
[१] पोतानो अपराध छे एम बेठुं छे.
[२] चोराशीना अवतार जेल समान लाग्या छे, एटले जन्म मरणनो त्रास लाग्यो छे.
[३] अपराधनुं स्वरूप जेणे अपराध जाण्यो छे एवा ज्ञानी पासेथी जणाय.
हवे शिष्यना प्रश्ननो उत्तर कहे छे:–
संसिद्धि, सिद्धि, राध, आराधित, साधित–एक छे,
ए राधथी जे रहित छे ते आत्मा अपराध छे;३०४
वळी आतमा जे निरपराधी ते निःशंकित होय छे,
वर्ते सदा आराधनाथी जाणतो ‘हुं’ आत्मने.३०५
आ बे गाथामां आत्मानी अपराध अने निरपराध दशानुं वर्णन छे.
१. देह ते जड छे, आत्मानी जात नथी. आत्मा ज्ञान–स्वरूप, ज्ञाता–द्रष्टा छे ते सिवाय परनी जे
भावना थवी ते गुन्हो छे.
२. परनी ईच्छा न थतां मारा तत्त्वमां ज सुख छे, पर द्रव्यनी नास्तिवडे मारा स्वतंत्र स्वरूपमां ज
सुख छे एम शुद्ध आत्मानी सिद्धि ते ज मारुं तत्त्व छे.
शिष्ये श्री गुरुनो विनय करीने कह्युं छे के, भगवंत! गुन्हानुं स्वरूप अथवा तो अगुन्हानुं स्वरूप कहो,
एक समजातां बीजुं पण समजाई जशे. निरपराधनुं स्वरूप समजे तो अपराधनुं समजे, अपराधनुं स्वरूप
समजे तो निरपराधनुं समजे.
“पर द्रव्यना परिहार वडे शुद्ध आत्मानी सिद्धि ते राध छे; अने जे राधथी रहित छे ते आत्मा अपराधी
छे.”
अपराध, अपराधनुं फळ अने अपराध टाळवानो उपाय...!
जो निरपराध होय तो परथी विवेक करीने (जुदापणुं करीने) स्वरूपना अनुभवना आनंदमां महालतो
होय! पण ते आनंद तो छे नहीं तेथी वर्तमान अपराध सहित छे; ते अपराध टाळवा माटे “हुं आत्मा ऊणो के
ओशियाळो नथी. मारा सुखने माटे कोई परनी जरूर नथी एम आत्मामां परना त्याग वडे हुं एक परिपूर्ण
शुद्ध छुं, स्वतंत्र छुं, एवो निरपराध भाव” ते ज साधन छे. आत्माने विषे जेटलो परनो ओशियाळो भाव
तेटले दरज्जे ते गुन्हेगार छे अने ते गुन्हानुं फळ संसारनी जेल छे.
कोई पर चीजथी आत्माने संतोष थाय एवी मान्यताना अभावथी, आत्माना पूर्ण स्वतंत्र स्वरूपनी
श्रद्धा, तेनुं ज्ञान, अने तेमां एकाग्रतारूप चारित्र ते त्रणेनी एकता ते आत्मानी राध छे.
पर वस्तुमां आत्मानुं सुख के संतोष त्रणकाळ त्रणलोकमां नथी एवी द्रढता ए आत्माना बीन
गुन्हेगार थवानो उपाय छे. परवस्तुना अभावसहित मारुं सुख मारामां छे एवो पोतामां ज सुख शांतिनो
निर्णय ते निरपराधपणुं छे; जेने आत्मामां सुखशांति छे एवो निर्णय नथी ते अपराधी छे. ते बन्नेनुं यथार्थ
पृथक् ज्ञान थया वगर मारुं शुं अने पर शुं ए जणाय नहीं.
स्वतंत्र निःशंक स्वभावनी संदेह पड्या वगरनी आत्मश्रद्धा ते निरपराधपणुं; अने स्वभावमां संदेह
अने परमां निःसंदेह ते अपराधीपणुं.
पोताना स्वभावमां शंका करी, स्वरूपथी डर्यो, तेमां संदेह पड्यो अने परमां सुख मान्युं ते अपराधी छे
तेने त्रणकाळ त्रणलोकमां चोराशीनी जेल सिवाय बीजुं फळ नथी. कर्मना निमित्ते जे विकारभाव जणाय तेने जे
पोतानो माने ते अपराधी छे.