: १० : आत्मधर्म २००१ : कारतक :
आ रीते महापुरुषो जेमने पोताना आत्मानुं भान थयुं तेओने पोताना ज आत्मानुं माहात्म्य थाय छे.
१प–श्री आनंदघनजी पोताना आत्माने संबोधतां–पुरुषार्थ जगाडवा जिनेश्वर प्रत्ये करार करे छे–
धर्म जिनेश्वर गाउं रंगशुं भंग म पडशो हो प्रीत जिनेश्वर, बीजो मन मंदिर आणुं नहीं ए अम कुळवट रीत!
हो जिनेश्वर...धर्म.....
हे चैतन्य! तुं तारा भानमां ऊठ्यो, तुं जागृत थयो, तेमां तुं बीजानो आदर केम आववा दईश?
१६–अनेकांतवाद:– हुं मारा स्वरूपमां पूर्ण छुं एवी श्रद्धा अने परनुं मारामां कांई नथी तेनुं नाम
अस्ति–नास्ति–ए ज अनेकान्तवाद.
१७–छेवट श्री अमृतचंद्राचार्य कहे छे के:– चैतन्य स्वरूपना अवलंबने जेणे स्वरूपनी यथार्थ श्रद्धा करी
तेने झगझगाट मारतुं जेनुं संपूर्ण तेज छे, जेने कदी ओप आपवो पडतो नथी, जेनो प्रकाश स्वत: संपूर्ण
प्रकाशमान छे एवुं जे केवळज्ञान तेनो उदय थाव! उदय थाव!
मारा स्वभावनो प्रकाश नित्य जेनो उदय रहे छे एवी केवळज्ञान ज्योत अनंत स्वचतुष्टयो मारा
स्वरूपमां सादि–अनंत स्फूरायमान रहो! प्रकाशमान रहो!
ओ जगतनां जीवो! मानो मानो!
अज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमंजसा।
स्यात्कर्तात्मात्म भावस्य परभावस्य न क्वचित्।। ६१।।
(समयसार कलश)
अर्थ:– आ रीते खरेखर पोताने अज्ञानरूप के ज्ञानरूप करतो आत्मा पोताना ज भावनो कर्ता छे, पर
भावनो (पुद्गलना भावोनो) कर्ता तो कदी नथी.
ए ज वातने द्रढ करे छे:–
आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम्।
परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम्।। ६२।।
(समयसार कलश)
अर्थ:– आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, पोते ज्ञान ज छे; ते (आत्मा) ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे? आत्मा पर
भावनो कर्ता छे एम मानवुं (तथा कहेवुं) ते व्यवहारी जीवोनो मोह (अज्ञान) छे.
भाई रे! तुं ज्ञान स्वरूप छो, जाणवुं ए ज तारुं कार्य छे, जाणवा सिवाय बीजुं कांई पण करवानुं तारुं
स्वरूप नथी; आ देह तारो नथी, देहनी क्रिया तारी नथी, देहनी क्रिया तुं करी शकतो नथी, अरे! प्रभु! तारा
जाणक स्वभावमां पाप तो नथी अने पुण्य पण नथी, पुण्य भाव पण तारा जाणक स्वभावथी विरुद्ध भाव छे–
माटे ते पुण्यमां तुं धर्म न मान! पुण्यथी आत्मानुं कल्याण थतुं नथी–आ वात दुनियामां कोण मानशे?...
‘ज्ञानीओ कहे छे के हे आत्मा! तुं ज्ञान स्वरूप छो, तुं तने समज! तुं तारा आत्माने प्रभु स्थाप, अने
बीजा भावोनो आदर छोड! तारी मुक्ति ज छे. आ समयसारजीनी पहेली ज गाथामां आचार्यदेवे स्थाप्युं छे
के–हुं अने तुं सिद्ध छीए, मारा अने तारा आत्मामां सिद्धपणुं स्थापुं छुं एटले सिद्धने जे भावो न होय ते
भावोनो आदर छोडी दे. तारो आत्मा सिद्ध जेवडो ज छे, अने तेमां सिद्धपणुं स्थाप्युं–तो हवे तेमां बीजा भावो
(सिद्धने न होय तेवा भावो) समाशे नहीं–माटे बीजा भावोनो आदर छोडी दे! ’ (पू. श्री कानजी स्वामीना
समयसार कलश ४ ना व्याख्यानमांथी) आ सिद्धपणानी वात दुनिया केम मानशे?
‘आ संसार महा भयानक दुःखथी भरेलो छे, आत्मधर्म विना–आत्माने ओळख्या विना आ संसार
भ्रमणनो अंत नथी, तेथी सर्व दुःखना आत्यंतीक क्षयने अर्थे एक धर्मने ज सेवो!
दरेक आत्मा पूर्ण ज्ञान–आनंद स्वरूप स्वतंत्र छे, वीतराग स्वरूप छे, सिद्ध समान छे, जेवुं सिद्ध