: कारतक : २००१ आत्मधर्म : ११ :
भगवंतनुं स्वरूप छे एवुं ज तारुं स्वरूप छे, एवा तारा स्वरूपनी ओळखाण करीने तेमां ज ठरी जा–ए
मोक्ष छे. तारुं स्वरूप तो क्यारेय पण ऊणुं–अधूरूं छे ज नहीं, पण तने तारा स्वरूपनी खबर नथी तेथी
तने तारा स्वरूपना आनंदनो अनुभव प्रगट नथी, माटे ज ज्ञानीओ तने तारा स्वरूपनी ओळखाण
करवानुं कहे छे.
तुं तारा स्वरूपथी छो, परना स्वरूपथी तुं नथी. पर स्वरूपने तारुं स्वरूप मानीने हे जीव! अनादिथी तुं
संसारमां रखडी रह्यो छो. सर्वज्ञ भगवान कहे छे के तुं ज्ञायक छो. जाणवा सिवाय तारुं स्वरूप नथी, राग–द्वेष
तारुं स्वरूप नथी, पण तुं राग–द्वेषनो ज्ञाता ज छो; शरीरमां रोग आवे तेनो तुं जाणनार ज छो, शरीर तारुं
छे ज नहीं. त्रणकाळ त्रणलोकनी प्रतिकूळता आवे तो तेनो पण तुं जाणनार ज छो, तारा ज्ञायक स्वभावने कोई
रोकी शकवा समर्थ नथी. आवा तारा ज्ञायक स्वभावने जाण अने तेमां ठर तो तने दुःख रहेशे नहीं–अने तारा
स्वरूपनुं अपूर्व सुख तारा अनुभवमां आवशे. तारा अपूर्व आत्मीक सुख पासे ईन्द्रपद के चक्रवर्तीनुं राज्य
सडेलां तरणां समान छे, तारुं स्वरूप तो आनंदनी लहेरोथी ऊछाळा मारी रह्युं छे, ए आनंद दरेक क्षणे
तारामां ज भर्यो छे तेने भोगव, परने भोगववानी ईच्छा मूकी दे!
हे भव्य! हे वत्स! तुं तने पोताने घोर दुःखरूपी संसार समुद्र विषे न डुबाड! तारा अज्ञानमय क्रूर
परिणामनुं फळ तने ज महादुःखकारी अने अनिष्ट थई पडशे, अज्ञानभावे हास्य करतां बांधेल पाप कर्मनुं फळ
रडतां पण नहीं छूटे, माटे एवा अज्ञानमय दुष्कृत्य छोड रे छोड! हवे सावधान था! सावधान था! सर्वज्ञ
जिनप्रणित धर्म अंगीकार कर, अने श्री जिनधर्मानुसारी थईने आत्मभान करी ले! ’
भाई रे! तुं उत्तम जीव छो, अत्यंत भव्य छो, तारी मुक्तिनां टाणां नजीक आव्यां छे–तेथी ज श्री
गुरुओनो आवो उपदेश तने प्राप्त थयो छे. अहा! केवो पवित्र निर्दोष अने मधुर उपदेश छे!! आवा परम
हितकारी उपदेशने कोण अंगीकार न करे! कोण न माने?
दुनिया न माने! दुनिया न माने! जेने दुनियामां रहेवुं छे, जेने जन्म–मरण करवां छे जेने पुण्य–
पापरूपी संसारचक्रमां भींसावुं छे–ते आ वात नहीं माने! पण जेने दुनियाथी पार थवुं छे, जन्म–मरण रहित
थवुं छे अने आत्मस्वरूपनी जेने दरकार छे ते तो आ वात जरूर मानवाना! आ वात मान्ये ज छूटको छे.
दुनिया न माने के माने, आजे माने, काले माने के चाहे तो वर्षो पछी माने–पण दुनियाथी पार एवा
अनंत ज्ञानीओए आ वात स्वीकारी छे; जेने दुनियामां रहेवुं छे, संसारनी रुचि छे, जन्म–मरणनो भय नथी
एवा अज्ञानीनी दुनिया आ वात नहीं माने! अने आ वात जे मानशे ते अज्ञानी नहीं रहे!
दुनिया न माने तेथी कांई सत्य फरी जतुं नथी, सत्य तो त्रणेकाळ सत्य ज छे. सत् ते वस्तुना आधारे
टकेलुं छे, वस्तु त्रिकाळ छे तेथी सत् पण त्रिकाळ छे. ओछा माणसो माननारा होय तेथी सत्ने नुकसान
पहोंचतुं नथी, केमके सत्ने संख्यानी जरूर नथी. वळी काळ के क्षेत्र फरतां सत् फरी जतुं नथी, केमके सत् काळ
के क्षेत्रने आधारे नथी.
सत्ने माननारनी संख्या त्रणेकाळ ओछी ज होय; अने एकवार पण यथार्थपणे सत्ने माने तो ते जीव
आ संसारमां दीर्घकाळ रहे ज नहीं. भगवान कुंदकुंदाचार्य देव समयसारजीमां भव्य जीवोने भलामण करे छे के:–
णाणगुणेण विहीणा एयं तु पयं बहु विणलहंते।
तं गिण्ह नियदमेदं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं।। २०६।।
बहु लोक ज्ञान गुणे रहित आ पद नहीं पामी शके;
रे! ग्रहण कर तुं नियत आ जो कर्म मोक्षेच्छा तने. २०प.
अन्वयार्थ:– ज्ञानगुणथी रहित घणाय लोको (घणां प्रकारनां कर्मो करवां छतां) आ ज्ञान पदने पामतां
नथी; माटे हे भव्य! जो तुं कर्मथी सर्वथा मुक्त थवा ईच्छतो हो तो नियत एवा आने (ज्ञानने) ग्रहण कर.
टीका:– कर्ममां (कर्म कांडमां) ज्ञाननुं प्रकाशवुं नहीं होवाथी सघळांय कर्मथी ज्ञाननी प्राप्ति थती नथी;
ज्ञानमां ज ज्ञाननुं प्रकाशवुं होवाथी केवळ (एक)