: १२ : आत्मधर्म २००१ : कारतक :
ज्ञानथी ज ज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. माटे ज्ञानशून्य घणाय जीवो, पुष्कळ (घणां प्रकारनां) कर्म करवाथी पण आ
ज्ञान पदने पामता नथी अने आ पदने नहीं पामता थका तेओ कर्मोथी मुक्त थता नथी; माटे कर्मथी मुक्त थवा
ईच्छनारे केवळ (एक) ज्ञानना आलंबनथी, नियत ज एवुं आ एक पद प्राप्त करवा योग्य छे.
भावार्थ:– ज्ञानथी ज मोक्ष थाय छे, कर्मथी नहीं; माटे मोक्षार्थीए ज्ञाननुं ज ध्यान करवुं एम उपदेश छे.
एदह्मि रदो णिच्चं संतुट्ठी होहि णिच्च मेदह्मि।
एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं।। २०६।।
आमां सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट ने आनाथी बन तुं तृप्त, तुजने सुख अहो! उत्तम थशे. २०६
अन्वयार्थ:– (हे भव्य प्राणी!)
तुं आमां (ज्ञानमां) नित्य रत अर्थात् प्रीतिवाळो था. आमां नित्य संतुष्ट था अने आनाथी तृप्त था;
(आम करवाथी) तने उत्तम सुख थशे.
टीका:– (हे भव्य!) एटलो ज सत्य (परमार्थ स्वरूप) आत्मा छे जेटलुं आ ज्ञान छे–एम निश्चय
करीने ज्ञानमात्रमां ज सदाय (–प्रीति, रुचि) पाम; एटलुं ज सत्य कल्याण छे जेटलुं आ ज्ञान छे–एम निश्चय
करीने आ ज्ञान मात्रथी ज सदाय संतोष पाम; एटलुं ज सत्य अनुभवनीय (अनुभव करवा योग्य) छे जेटलुं
आ ज्ञान छे–एम निश्चय करीने ज्ञानमात्रथी ज सदाय तृप्ति पाम. एम सदाय आत्मामां रत, आत्माथी संतुष्ट
अने आत्माथी तृप्त एवा तने वचनथी अगोचर एवुं सुख थशे; अने ते सुख ते क्षणे ज तुं ज स्वयमेव देखशे,
बीजाओने न पूछ. (ते सुख पोताने ज अनुभवगोचर छे, बीजाने शा माटे पूछवुं पडे?)
भावार्थ:– ज्ञानमात्र आत्मामां लीन थवुं, तेनाथी ज संतुष्ट थवुं अने तेनाथी ज तृप्त थवुं––ए
पुण्यनी हद मात्र पापथी बचवा पूरती छे, गमे तेवा ऊंचा पुण्य बांधे
तोपण पुण्यथी कदी धर्म थतो नथी, पण बाह्यमां जडनो संयोग मळे छे.
पुण्यनी हद क्यां सुधीनी छे ते जाणवा प्रथम पुण्य एटले शुं ते जाणवुं पडशे. पुण्य ते आत्मानो
विकारी भाव छे,
शुद्ध भाव अथवा धर्म
भाव
अशुद्ध भाव शुभ अथवा पुण्य
अशुभ अथवा पाप
उपरना कोठा परथी जणाशे के पुण्य ते धर्म नथी, पण आत्मानो अशुद्ध भाव छे, पर लक्षे थता
आत्माना शुभ भाव ते पुण्य छे, अने अशुभभाव ते पाप छे; अने ते बन्ने रहित आत्माना शुद्ध स्वभाव
आश्रित जे भाव ते धर्म छे. पुण्य–पाप बाह्य शरीरादिनी क्रियाथी थता नथी, पण आत्माना भावथी थाय छे.
उपवास कर्यो (अन्ननो त्याग कर्यो) ते पुण्यनुं कारण नथी, पण तेमां जेटली कषायनी मंदता करी तेटलुं पुण्य
छे. बहारमां अन्ननो त्याग ते खरेखर आत्माना हाथनी वात नथी. वळी जो बाह्य क्रियाथी पुण्य–पाप होय तो
कोई डोकटर ओपरेशन करतो होय तेने पाप ज