आत्मा करी शकतो नथी, मात्र भाव करी शके छे; आथी नक्की थयुं के पुण्य–पाप बन्ने आत्माना ज विकारी
भाव छे. हवे पुण्यनी हद केटली? ते विचारीए.
संयोगाधीन विकार भाव जीव करे तो थई शके, अने तेनुं फळ संसार मळे. पापथी छूटवा माटे पुण्यनो आश्रय
लेवो तेनी ना नथी, पण द्रष्टिमां तेनो आदर न होवो जोईए. साची ओळखाण थया पछी वीतराग थया
पहेलांं वच्चे पुण्यना शुभभाव आव्या वगर रहे नहीं. वच्चे पुण्य आव्या वगर कोई सीधो वीतराग थई जाय
नहीं, आथी धर्ममां पुण्य मददगार छे एम नथी कहेवुं, पण ज्यारे ते पुण्यभावनो अभाव करे त्यारे ज
वीतराग थई शके, एटले ऊलटो पुण्य भाव तो वीतरागतामां विघ्नकर्ता छे.
हित नथी. ’ एवो द्रष्टिमां पुण्यनो तद्न अस्वीकार थया वगर कदी धर्मनी शरूआत पण थाय नहीं.
(१) पुण्य ते धर्म नथी, धर्मनुं अंग नथी के धर्ममां मदद करनार पण नथी.
(२) ज्यां सुधी अंतरमां पुण्यनी ईच्छा पडी छे त्यां सुधी धर्मनी शरूआत थती नथी, एथी पुण्यनी
स्वरूपनी बहार छे; अने तेथी तेना फळमां पण बाह्यनो ज संयोग मळे छे.
क्यां चैतन्य भगवान आत्मानो स्वभाव! अने क्यां जड कर्मनो स्वभाव! आत्माना स्वभावना
तेने स्वभावनी प्रतित नथी, ज्यां अंदरना स्वभावनी प्रतित थई अने निमित्तनो नकार थयो (अवलंबन
छूटयुं) त्यां भवनो अभाव ज छे, पण मात्र निमित्तनुं लक्ष करे अने उपादानने न जाणे तो मुक्ति थाय नहीं.
अने जो उपादाननुं लक्ष करे तो चैतन्य शुद्ध स्वभावनी श्रद्धा तेनुं ज ज्ञान अने तेमां स्थिरता करवाथी बंधनो
नाश अवश्य थाय छे. मात्र बंधने जाणवाथी के तेनो विचार कर्या करवाथी बंधन कपातुं नथी.
आत्माना पुरुषार्थने रोके नहीं; जे वीर्ये ऊंधुंं थईने कर्म बांध्युं, ते ज वीर्य सवळुं थाय तो ते कर्मने क्षणमात्रमां
तोडी नांखे. कर्म लांबा के तुं? कोनी स्थिति वधारे? प्रभु! बधी शक्ति तारी पासे ज भरी छे, पण अनादिथी तें
परनी वात मांडी छे; तेथी स्वाश्रयनी प्रतीति नथी. घरे लग्न वखते ‘भंगीआ जमी गया के नहीं’ एम
भंगीआने याद करे पण ‘भाईओ जमी गया के नहीं’ ते याद न करे ए केवुं? भाईओने भूलीने भंगीआने
याद करे छे ते मूर्खाई ज छे, तेम अनंतगुणनो पिंड जे बंधुरूपे सदाय साथे रहेनार