Atmadharma magazine - Ank 013
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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‘परथी मने लाभ थाय अथवा कर्म मने रखडावे’
ए मान्यता ज जन्म मरणनुं कारण छे.
परम पूज्य सद्गुरुदेवनुं व्याख्यान. लाठी चैत्र सुद १४

त्रिकाळ अबाधित सिद्धांत छे के एक तत्त्वनी बीजा तत्त्वमां द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावे नास्ति छे. ‘आत्मा
छे’ एम कहेतां अनंत परनी (राग–द्वेष अने कर्म ए पण पर छे तेनी पण) आत्मामां नास्ति छे–एम थयुं. जे
परपणे पोते नथी ते पोताने लाभ–नुकशान केम करी शके? जे आत्माने परथी कांईपण लाभ नुकशान माने
तेने परथी जुदा आत्मतत्त्वनी श्रद्धा ज नथी.
प्रश्न:– उपर कह्युं के एक तत्त्वनी बीजा तत्त्वमां नास्ति छे, पण जो आत्मामां कर्म न होय तो आत्मा
रझळे केम?
उत्तर:– कर्मनी तो आत्मामां त्रिकाळ नास्ति ज छे. पण आत्मानी क्षणिक विकारी मान्यता छे के ‘परथी
मने लाभ थाय अथवा तो कर्म मने रखडावे’ ए मान्यता ज जन्म–मरणनुं कारण छे. पोतानी ऊंधी मान्यताथी
ज आत्मा रझळ्‌यो छे. कर्मे रझळाव्यो नथी. आत्माना स्वभावमां जन्म–मरणनी नास्ति छे, आत्माने लाभ
करनार पोतानो अंतर स्वभाव अने नुकशान करनार क्षणिक विकारी पर्याय छे. नुकशान क्षणिक पर्यायमां छे.
स्वरूपमां नुकशान नथी. आत्माने परथी तो लाभ–नुकशान छे ज नहीं.
प्रश्न:– जो परथी नुकशान नथी अने स्वरूपमां नुकशान छे नहीं; तो नुकशाननुं कारण कोण?
उत्तर:– पोतानो स्वतंत्र स्वभाव न मानतां कोई पर होय तो मने लाभ थाय, वृषभनाराच
संहननवाळुं शरीर होय तो केवळज्ञान थाय एवी ऊंधी मान्यतानो क्षणिक अवस्था पूरतो विकारी भाव
नुकशाननुं कारण छे. तो पण क्षणिक अवस्था पूरता राग–द्वेष ते त्रिकाळी स्वभावने नुकशान करवा समर्थ नथी.
प्रश्न:– आत्माने संसार परिभ्रमण केम छे?
उत्तर:– पर मने लाभ–नुकशान करे एवी ‘नास्तिनी अस्ति’ अने मने मारुं स्वरूप ज लाभ करे छे
एवी ‘अस्तिनी श्रद्धानी नास्ति’ ए मान्यता ज परिभ्रमणनुं कारण छे.
रागद्वेष क्षणिक छे, बे समयना राग–द्वेष कदी भेगा थता नथी. एक समयना राग–द्वेष बीजे समये नाश
पामे छे, अने त्रिकाळ स्वभाव तो निरंतर पड्यो ज छे. क्षणिक रागद्वेष भाव त्रिकाळ स्वरूपनो नाश न करी
शके–अने त्रिकाळ स्वरूप ते क्षणिक विकारनो नाश करनार छे, ए त्रिकाळ स्वरूपनी द्रष्टि ते ज सम्यग्दर्शन!
नित्यना जोरे अनित्यनो नाश थई शके छे, पण अनित्य कदी नित्यने नुकशान पहोंचाडी शकतुं नथी.
प्रभु! तारी प्रभुतानी वात एकवार काने तो पडवा दे? तें तारी प्रभुता जाणी नथी, अने अनादिनुं जोर
क्षणिक भाव उपर राख्युं छे. नित्य स्वरूप उपर जोर ज नथी लाव्यो ए ज जन्म–मरणनी जड अर्थात् मूळीयुं छे.
स्वभावमां जन्म–मरण नथी अने जन्म–मरणनुं कारण एवा राग–द्वेष भाव पण स्वभावमां नथी.
जन्मनुं कारण आत्मानो स्वभाव नथी तेमज जन्मनुं कारण परवस्तु पण नथी; जन्म–मरणनुं कारण क्षणिक
अवस्थामां भ्रांति हती ते हतुं, ते भ्रांति तूटी के भव अने भवनो भाव मारा स्वरूपमां नथी. एवी श्रद्धामां
ज्यां भ्रांतिनो नाश थयो त्यां जन्म–मरण छे ज नहीं.
जगत माने के न माने पण आ त्रिकाळ सत्य छे; सत्य कोईने आश्रये टकयुं नथी, पण वस्तुनो स्वभाव
ज एवो छे. समकितीने हा आवी छे स्वभावनी अने ना आवी छे विभावनी! हुं सच्चिदानंद शांति स्वरूप
अनंतगुणोना पिंडरूप एक छुं–ते एकरूपनी जेने श्रद्धा छे तेने जन्म–मरणना नाशनी शंका रहेती नथी, अर्थात्
तेने जन्म–मरण होतां ज नथी.
प्रभु! तारा प्रभुत्त्वनी हा तो पाड! आ टाणे तारा स्वरूपने नहीं समज तो आंखो मींचाता क्यां चाल्यो
जईश! साची समजणनां आवां टाणां दुर्लभ छे. माटे आ टाणे स्वरूपने ओळखी ले!