Atmadharma magazine - Ank 015
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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कुंदकुंद रच्युं शास्त्र, साथिया अमृते पूर्या,
ग्रंथाधिराज! तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्या.
: पोष : २००१ : आत्मधर्म : ४१ :
समयसर



श्री समयसार अलौकिक शास्त्र छे. आचार्य भगवाने आ जगतना जीवो पर परम करूणा करीने आ
शास्त्र रच्युं छे. तेमां मोक्षमार्गनुं यथार्थ स्वरूप जेम छे तेम कहेवामां आव्युं छे. अनंत काळथी परिभ्रमण करतां
जे कांई समजवुं बाकी रही गयुं छे ते आ परमागममां समजाव्युं छे. परमकृपाळु आचार्य भगवान आ शास्त्र
शरू करतां पोते ज कहे छे:– ‘काम भोग बंधननी कथा बधाए सांभळी छे, परिचय कर्यो छे, अनुभवी छे पण
परथी जुदा एकत्वनी प्राप्ति ज केवळ दुर्लभ छे. ते एक–वनी–परथी भिन्न आत्मानी–वात हुं आ शास्त्रमां
समस्त निज विभवथी (आगम, युक्ति, परंपरा अने अनुभवथी) कहीश. ’ आ प्रतिज्ञा प्रमाणे आचार्यदेव
आ शास्त्रमां आत्मानुं एकत्व–पर द्रव्यथी अने पर भावोथी भिन्नता–समजावे छे. तेओश्री कहे छे के ‘जे
आत्माने अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष अने असंयुक्त देखे छे ते समग्र जिनशासनने देखे छे. ’ वळी
तेओ कहे छे के ‘आवुं नहि देखनार अज्ञानीनां सर्व भावो अज्ञानमय छे. ’ आ रीते, ज्यांसुधी जीवने पोतानी
शुद्धतानो अनुभव थतो नथी त्यां सुधी ते मोक्षमार्गी नथी, पछी भले व्रत, समिति गुप्ति आदि व्यवहार चारित्र
पाळतो होय अने सर्व आगमो पण भणी चूक्यो होय. जेने शुद्ध आत्मानो अनुभव वर्ते छे ते ज सम्यग्द्रष्टि
छे. रागादिना उदयमां समकीती जीव कदी एकाकाररूप परिणमतो नथी परंतु एम अनुभवे छे के ‘आ
पुद्गलकर्मरूप रागना विपाकरूप उदय छे; ए मारो भाव नथी, हुं तो एक ज्ञायक भाव छुं–’ अहीं प्रश्न थशे के
रागादि भावो थतां होवा छतां आत्मा शुद्ध केम होई शके? उत्तरमां स्फटिकमणिनुं द्रष्टांत आपवामां आव्युं छे.
जेम स्फटिकमणी लाल कपडाना संयोगे लाल देखाय छे–थाय छे तो पण स्फटिकमणिना स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां
स्फटिकमणिए निर्मळपणुं छोड्युं नथी, तेम आत्मा रागादि कर्मोदयना संयोगे रागी देखाय छे–थाय छे तो पण
शुद्धनयनी द्रष्टिथी तेणे शुद्धता छोडी नथी. पर्यायद्रष्टिए अशुद्धता वर्तता छतां द्रव्यद्रष्टिए शुद्धतानो अनुभव
थई शके छे. ते अनुभव चोथे गुणस्थाने थाय छे. सम्यग्द्रष्टिनुं परिणमन ज फरी गयुं होय छे. ते गमे ते कार्य
करतां शुद्ध आत्माने ज अनुभवे छे. जेम लोलुपी माणस मीठाना अने शाकना स्वादने जुदा पाडी शकतो नथी
तेम अज्ञानी ज्ञानने अने रागने जुदा पाडी शकतो नथी; जेम अलुब्ध माणस शाकथी मीठानो जुदो स्वाद लई
शके छे तेम सम्यग्द्रष्टि रागथी ज्ञानने जुदुं ज अनुभवे छे. हवे ए प्रश्न थाय छे के आवुं सम्यग्दर्शन कई रीते
प्राप्त करी शकाय अर्थात् रागने आत्मानी भिन्नता कई रीते अनुभवांशे समजाय? आचार्य भगवान उत्तर
आपे छे के, प्रज्ञारूपी छीणीथी छेदतां ते बन्ने जुदां पडी जाय छे, अर्थात् ज्ञानथी ज–वस्तुना यथार्थ स्वरूपनी
ओळखाणथी ज–’ अनादि काळथी रागद्वेष साथे एकाकाररूपे परिणमतो आत्मा भिन्नपणे परिणमवा लागे छे;
आ सिवाय बीजो कोई उपाय नथी. माटे दरेक जीवे वस्तुना यथार्थ स्वरूपनी ओळखाण करवानो सदा प्रयत्न
करवो ते तेनुं कर्तव्य छे.

यथार्थ आत्मस्वरूपनी ओळखाण कराववी ते आ शास्त्रनो मुख्य उदेश छे. ते उदेशने पहोंची वळवा आ
शास्त्रमां आचार्य भगवाने अनेक विषयोनुं निरूपण कर्युं छे. जीव अने पुद्गलने निमित्त नैमित्तिकपणुं होवा
छतां बन्नेनुं तदन स्वतंत्र परिणमन, ज्ञानीने रागद्वेषनुं अकर्ता–अभोक्तापणुं, अज्ञानीने रागद्वेषनुं कर्ता–
भोक्तापणुं, सांख्य दर्शननी एकांतिकता, गुणस्थान–आरोहणमां भावनुं अने द्रव्यनुं निमित्तनैमित्तिकपणुं,
विकाररूपे परिणमवामां अज्ञानीनो पोतानो ज दोष, मिथ्यात्वादिनुं जडपणुं तेम ज चेतनपणुं, पुण्य अने पाप
बन्नेनुं बंध स्वरूपपणुं, मोक्षमार्गमां चरणानुयोगनुं स्थान ईत्यादि अनेक विषयोमां आ शास्त्रमां प्ररूप्या छे.