रत्नत्रयीनी व्याख्या आपीने तेने मोक्षप्राप्तिनुं साधन साबित कर्युं छे.
आ शुभ अशुभ कर्मबंधथी छुटवा माटे शुभ–अशुभ बन्ने प्रकारना भावोनो समस्त प्रकारे त्याग करवानो
उपदेश आप्यो छे.
काळनी पोतानी विकारी अवस्थानो समस्त प्रकारे नाश करीने पोतानी स्वाभाविक निर्विकार अवस्थाने आत्मा
प्राप्त करे छे.
पहेलां ओगणीस गाथाना जीवाधिकारमां आचार्यदेवे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रय ने ‘नियम’
कर्यो छे.
परमात्मा आप्त अर्थात् पूज्य कहेवाय छे. पूर्वापर विरोध रहित शुद्ध, हितकर अने मधुर एवा आप्त वचनोने
आगम कहे छे; अने आगममां कहेला गुणपर्यायो सहित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ ए छ
द्रव्यो ज तत्त्वार्थ छे. आवा आप्त, आगम अने तत्त्वार्थनी श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन छे.
केवळज्ञान ते आत्मानो स्वभाव छे. मति, श्रुत, अवधि अने मनःपर्ययज्ञान ते अपूर्ण ज्ञान छे. एज प्रमाणे
दर्शनोपयोग पण स्वभाव अने विभाव एवा भेदथी बे प्रकारनो छे. केवळदर्शन ते स्वभाव उपयोग छे अने
चक्षु, अचक्षु तथा अवधि दर्शन ते अपूर्ण दर्शनोपयोग छे.
बीजा अढार गाथाना अजीवाधिकारमां पुद्गल द्रव्यना एक छूटो परमाणु अने स्कंध एवा बे भेद कह्या
लक्षे वर्ततो आत्मा अशुद्ध, विभावसहित अने विकाररूप छे–एम कह्या पछी धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ
द्रव्योना लक्षण तथा तेना भेद अने विशेष भेदनुं वर्णन कर्युं छे.
योनि, शरीर, समास, मार्गणा, दंड, द्वंद, रागद्वेष, शल्य, मूढता विषय, कषाय, काम, मोह, गोत्र, वेद, संस्थान,
संहनन वगेरे बधा विकारोथी आ शुद्धस्वरूपी आत्मा तद्न रहित छे, ए रीते विभाव भावोथी जुदो शुद्ध
आत्मा ए ज उपादेय छे, बाकीना बाह्य तत्त्वो होय छे. आठ गुण सहित जेवा सिद्धभगवानना आत्मा
अविनाशी, निर्मळ, लोकना अग्रभागे बिराजे छे तेवा ज शुद्धस्वरूपी बधा संसारी जीवो पण निश्चयनयथी छे.
विपरीत अभिप्रायथी रहित तत्त्व श्रद्धान ते सम्यग्दर्शन छे अने संशय, मोह विभ्रमथी रहित हेय उपादेयनुं
ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान छे.