: पोष : २००१ : आत्मधर्म : ४५ :
राग मुनि ज सम्यक्चारित्रने प्राप्त थई शके छे.
पांचमा अढार गाथाना निश्चय प्रतिक्रमण अधिकारमां चारित्रने द्रढ करवा माटे निश्चय प्रतिक्रमणनुं
वर्णन कर्युं छे. वाणी तरफनुं बधुं लक्ष अने राग–द्वेष भावोने छोडीने आत्माना शुद्ध स्वरूपनुं चिंतवन करवुं,
विराधना (स्वरूपथी खसीने जे शुभाशुभ भाव थाय ते विराधना छे तेने अहीं पापक्रिया कीधी छे–ते) छोडीने
आराधना (आत्मस्वरूपमां स्थिरता ते आराधना छे ते) मां लीन थवुं, उन्मार्गथी पाछा फरीने शुद्ध स्वरूपमां
सन्मुख रहेवुं, माया मिथ्यात्व निदान भावोथी छूटीने शल्य रहित थवुं, आर्त्त रौद्र ध्यान छोडीने धर्म–शुक्ल
ध्यानमां लीन थवुं, मिथ्यादर्शन–ज्ञान–चारित्रने सर्वथा छोडीने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी भावना करवी–ते
प्रतिक्रमण छे. ए रीते बधा परभावो अने क्रियाओथी छ्रूटीने आत्मामां स्थिर थवुं ते ज साचुं प्रतिक्रमण छे–के
जे मोक्ष प्राप्तिनुं वास्तविक साधन छे.
छठ्ठा बार गाथाना निश्चय प्रत्याख्यान अधिकारमां–साधुजनो आहार पछी हमेशां आवता दिवसो माटे
पोतानी शक्ति प्रमाणे योग्यकाळ सुधी आहारना त्यागनो विकल्प करे छे ते रूप व्यवहार प्रत्याख्याननुं कथन
नथी पण पोताना स्वरूपनी स्थिरता करवाना प्रयोजनथी बधा परभावोनो सर्वथा त्याग करवो तेने साचुं
प्रत्याख्यान बताव्युं छे.
सातमा छ गाथाना निश्चयालोचनाधिकारमां वीतराग–भावस्वरूप परिणामथी आत्मस्वरूपनुं
अवलोकन करवुं (स्थिरता करवी) ते आलोचनानुं लक्षण कह्युं छे. ज्ञानावरणादि आठ प्रकारना द्रव्य–कर्म,
औदारीक–वैक्रियिक–आहारक ए त्रण प्रकारना शरीर ए नोकर्म–आत्माना स्वभाव ज्ञानथी विभावरूप मति,
श्रुत, अवधि अने मन: पर्याय ज्ञान अने आत्मानी विभाव व्यंजन पर्याय देव, मनुष्य तिर्यंच अने नारक छे–
तेनाथी रहित आत्माना स्वरूपनुं ध्यान करवुं ते साची आलोचना छे.
आठमां नव गाथाना निश्चय प्रायश्चित अधिकारमां व्रत, समिति, शील अने संयममां प्रवृत्त विभावरूप
शुभ भावोनो क्षय करनारी भावनामां वर्तवुं तथा आत्माना स्वरूपनुं चिंतवन अथवा आत्मस्थिरता प्राप्त
करवी ते साचुं प्रायश्चित छे एम कह्युं छे. ए रीते शरीर वगेरे परद्रव्योनुं ममत्त्व तथा ते तरफना विकल्पने
छोडीने सकल विकल्पो एटले के शुभाशुभ भाव छोडीने आत्मस्वरूपमां एकाकार रूप लीन थई जवुं ते ज बधा
दोष अने पापोनुं साचुं प्रायश्चित छे.
नवमा बार गाथाना परमसमाधि अधिकारमां आचार्य देवे बताव्युं छे के वीतराग भावपूर्वक वाणी
तरफना विकल्पने छोडीने आत्मानुं चिंतन करवुं, संयम–नियम अने तप द्वारा धर्मध्यानमां एकाग्र थवुं अने
पुण्य–पापनुं कारण जे राग–द्वेष तेने छोडीने स्वरूपमां स्थिरतारूप समभाव धारण करवो अने हास्य, रति,
अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, अने स्त्री–पुरुष तथा नपुंसक ए त्रण वेद एवा नव प्रकारना नोकषायोने छोडी
देवा ते परम समाधि छे.
दसमा सात गाथाना परम भक्ति अधिकारमां आचार्यदेवे ए प्रतिपादन कर्युं छे के संसार परिभ्रमणथी
मुक्त थवाना कारणभूत एवा रत्नत्रय स्वरूपनी द्रढ भक्ति थवी तेज परम भक्ति छे. सिद्धस्वरूपना
(पोताना) गुणोने भेद अने उपभेद सहित जाणीने ते गुणोमां आत्मानी (गुणोथी अभेद एवा आत्मानी)
भक्ति थवी अने राग–द्वेष विषय कषायादि
मोक्षनी क्रिया
श्री रामजीभाई माणेकचंद दोशीनुं लखाण पुस्तकरूपे आ पहेली ज वार प्रगट
थाय छे. आ पुस्तकमां तेना नाम प्रमाणे ‘कई क्रिया करवाथी मोक्ष थाय...?’ ए प्रश्ननो
उत्तर अनेक न्यायपूर्णदलीलोथी तद्न सरळ अने सचोट रीते आपवामां आव्यो छे.
अहीं क्रियानुं उत्थापन नथी थतुं पण वास्तविक मोक्षनी क्रिया शुं तेनुं स्थापन थाय छे–
ए आ नाना शास्त्रमां बहु सुंदर रीते बताव्युं छे... आ पुस्तक टूंक वखतमां प्रगट थशे.