स्थिर थई जवुं ते स्वाधीनता छे, ते ज वास्तविक मोक्षमार्ग छे, आ मार्गनुं ग्रहण करवुं ते दरेक आत्मानुं परम
आवश्यक एटले के खास करीने करवा योग्य कर्तव्य छे. आत्माना वीतराग योगीश्वर स्वरूपनुं परभावोमां न
फसावुं अर्थात् पर भावोनो सर्वथा नाश करवो ए ज जरूरी करवा योग्य कर्तव्य छे. आत्माथी अत्यंतपणे जुदा
एवा परपदार्थोनुं लक्ष करीने शुभाशुभ भावोने आधीन थवुं, छ द्रव्योना गुण–पर्यायना विकल्प करवा, पुण्य–
पापरूप परिणामोमां प्रवर्तवुं ए वगेरेरूप पराधीनताने (पर लक्षे थता विकल्पोने) छोडीने आत्माना
स्वभावनुं ध्यान करवुं ते ज स्वाधीनता छे. ए स्वाधीनतारूप आवश्यक कर्या विना बधुं चारित्र भ्रष्ट छे अने
निष्फळ छे; अर्थात् चारित्र होतुं ज नथी.
अने ज्ञान बन्ने स्व–पर प्रकाशक छे. आत्मा स्वभावथी ज दर्शन ज्ञानस्वरूप छे. बधा रूपी अने अरूपी द्रव्योने
गुण पर्यायो सहित जेम छे तेम एक साथे जाणवुं ते प्रत्यक्ष ज्ञान छे. केवळीने ईच्छानो अभाव होय छे अने
ईच्छाना अभावमां देखवुं, जाणवुं, वाणी छूटवी, स्थिर रहेवुं के चालवुं वगेरे कर्म बंधनुं कारण नथी. केवळीने
आयुकर्मनी पूर्णता थतां बाकीना अघातिया कर्मो पण क्षय थई जाय छे; अने आत्मा लोक शिखरनी टोचे
बिराजमान थाय छे, ज्यां संसारीक सुख, दुःख, पीडा, बाधा जन्म, मरण, निद्रा, तृषा, क्षुधा, द्रव्यकर्म, नोकर्म,
ईन्द्रिय–विषय, उपसर्ग, मोह, आश्चर्य, चिंता, ध्यान वगेरे विकारनो अभाव छे, अने आत्मा अनंतदर्शन–
अनंत–ज्ञान–अनंतवीर्य–अनंतआनंदमय सच्चिदानंद स्वरूप अविनाशी अने निर्विकारी अवस्थामां रहे छे.
करतां परम पदनी प्राप्ति ए ज मुख्य छे. पोते लक्षमां लीधेला पदनी प्राप्तिनी निरंतर भावना अने परम ध्येय
एवा सिद्ध स्वरूपी परमात्माना गुण चिंतनमां (शुद्ध–स्वरूपनी भावनामां) एकाग्र थई जवुं ते शुद्धोपयोग छे.
आ शुद्धोपयोग निर्वाण अर्थात् सिद्धदशानी प्राप्तिनुं खरेखर कारण छे.
आ ज (सम्यग्दर्शन ज) धर्मनो आधार अने मुक्तिमार्गनुं सुनिश्चित साधन छे, तेना विना ज्ञान, चारित्र के
तपनुं कांई मूल्य नथी, अने तेनाथी (सम्यग्दर्शनथी) अशुद्धतानो नाश थाय छे, तेना विना संसार
परिभ्रमणथी छूटी शकातुं नथी.
होय. ते जीवोए पोतानी संपूर्ण शुद्धता प्राप्त करेली होय छे; तेथी तेओ ज आत्मस्वरूपनी