Atmadharma magazine - Ank 015
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: ३८ : आत्मधर्म : पोष : २००१ :
स्त्र त्त
भगवान कुंदकुंदाचार्ये पोताना परमागमोमां तीर्थंकर देवोना उत्तमोत्तम सिद्धांतने जाळवी राख्या छे अने
मोक्षमार्गने टकावी राख्यो छे. तेमना पछी थएला ग्रंथकार आचार्यो पोताना कोई कथनने सिद्ध करवा माटे
कुंदकुंदाचार्य देवनां शास्त्रोनो हवालो आपे छे.
कुंदकुंद भगवानुं महाविदेह क्षेत्रगमन
(अनुष्टुप)
विक्रमशक प्रारंभे, घटना एक बनी महा; विदेही ध्वनिना रणका, जेथी आ भरते मळ्‌या.
(समोसरण स्तुति पानुं – १४)
अर्थ–विक्रम संवतनी शरूआतमां एक महान प्रसंग बन्यो, के जे प्रसंगने लीधे विदेहक्षेत्रना साक्षात्
तीर्थंकरनी दिव्यध्वनिना उपदेशनुं रहस्य आ भरतक्षेत्रने मळ्‌युं. ते प्रसंग शुं हतो ते हवे कहे छे:–
(शार्दुलविक्रीडित)
बहु ऋद्धिधारी कुंदकुंद मुनि थया ए काळमां, जे श्रुतज्ञान प्रवीणने अध्यात्मरत योगी हता;
आचार्यने मन एकदा जिनविरह ताप थयो महा, रे! रे! सीमंधर जिनना विरहा पड्या आ भरतमां!
(समोसरण स्तुति पानुं – १४)
अर्थ:– ते वखतमां घणी ऋद्धिओना धारक कुंदकुंद मुनि आ भरतक्षेत्रमां थया, तेओ श्रुतज्ञानमां घणा
अनुभवी अने आत्मस्वरूपमां मस्त निर्ग्रथ मुनि हता; एक दिवस ते कुंदकुंदाचार्यने भरत क्षेत्रमां साक्षात् तीर्थंकर
देवना विरहनो ताप थयो के ‘अरेरे! आ भरतक्षेत्रने साक्षात् तीर्थंकरदेव सीमंधर जिनना विरह पड्या!’
(शार्दुलविक्रीडित)
एकाएक छूटयो ध्वनि जिनतणो ‘सद्धर्म वृद्धि हजो’ सीमंधर जिनना समोसरणमां ना अर्थ पाम्या
जनो; संधिहीन ध्वनि सूणी परिषदे आश्चर्य व्याख्युं महा, थोडीवार मंही तहीं मुनि दीठा अध्यात्ममूर्ति समा.
जोडी हाथ उभा प्रभु प्रणमता, शी भक्तिमां लीनता! नानो देह अने दिगंबरदशा, विस्मित लोको थता; चक्री
विस्मय भक्तिथी जिन पूछे हें नाथ! छे कोण आ –छे आचार्य समर्थ ए भरतना सद्धर्मवृद्धि करा.
(समोसरण स्तुति पानुं – १४)
अर्थ:– महाविदेह क्षेत्रमां साक्षात् तीर्थंकर श्री सीमंधर भगवान बिराजे छे तेमना समवसरणमां
अचानक “सद्धर्म वृद्धि हजो” एवो ध्वनि छूटयो, परंतु ते “सद्धर्म वृद्धि हजो” एवा आशीर्वादरूप वचनो शा
कारणे नीकळ्‌या ते सभाजनो समजी शकया नहि; अने ते संधि वगरनी वाणी सांभळीने समवसरणनी सभामां
महान आश्चर्य थयुं के आ शुं? आ रीते सभा आश्चर्यमां पडी गया पछी थोडा वखतमां सीमंधर भगवानना
समवसरणमां एक मुनि आव्या, ते मुनि जाणे के अध्यात्मनी ज मूर्ति होय एवा हता.
नवा आवेला ते मुनि हाथ जोडीने प्रभुश्रीने नमस्कार करता ऊभा हता अने प्रभुश्री प्रत्येनी भक्तिमां
एकदम लीन हता. तेमनुं शरीर नानुं हतुं अने तेओ तद्न निर्ग्रंथ दशामां हता, तेमने जोईने सभाजनोने
आश्चर्य थयुं. (महाविदेहना माणसोनां शरीर प०० धनुषना होय छे अने आ मुनिनुं शरीर एक धनुष–३
।।
हाथ–ज हतुं तेथी त्यानां माणसोने आश्चर्य थयुं.)
सभामां बेठेला चक्रवर्ती राजाने पण आश्चर्य थयुं अने जिनेश्वरदेवने भक्तिथी पूछे छे के “हे नाथ! आ कोण
छे?” जिनेश्वर देव दिव्य–ध्वनि द्वारा उत्तर आपे छे के ते भरतक्षेत्रना, साचा धर्मनी वृद्धि करनारा महान आचार्य छे.
(अनुष्टुप)
सूणी ए वात जिनवरनी हर्ष जनहृदये वहे; नानकडा मुनिकुंजरने ‘एलाचार्य’ जनो कहे.
(समोसरण स्तुति पानुं – १४)
अर्थ:– श्री सीमंधर जिननी ए वात सांभळीने सभाजनोना अंतरमां हर्ष थयो. अने नानादेहवाळा
तथा मुनिओमां हस्ती समान एवा ए भरतना कुंदकुंदने महाविदेहना लोको एलाचार्य कहेवा लाग्या.
(ि) : प्रत्यक्ष जिनवर दर्शने बहु हर्ष एलाचार्यने “कार सूणतां जिनतणो, अमृत मळ्‌युं मुनिहृदयने;
सप्ताह एक राणी ध्वनि, श्रुत केवळी परिचय करी शंका निवारण सहु करी मुनि भरतमां आव्या फरी.
(सगासरण स्तुति पानुं – १४)
अर्थ:– जिनेन्द्रदेव श्री सीमंधर भगवानना साक्षात् दर्शन करतां एलाचार्य–कुंदकुंदाचार्यने