Atmadharma magazine - Ank 015
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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(अनुष्टुप)
(समोसरण स्तुति पानुं–१५)
वसंततिलका
(समोसरण स्तुति
पानुं–१५)
ि (समोसरण स्तुति
पानुं–१५)
छाया
: पोष : २००१ : आत्मधर्म : ३९ :
घणो आनंद थयो अने तेमनो दिव्य ध्वनि “ सांभळता मुनिना हृदयने जाणे अमृत मळ्‌युं होय तेवो आनंद
थयो ए प्रमाणे महाविदेह क्षेत्रमां श्री सीमंधर भगवाननो दिव्य ध्वनि आठ दिवस सांभळीने, त्यांना
श्रुतकेवळीओनो परिचय करीने अने बधी शंकाओनुं निवारण करीने श्री कुंदकुंद आचार्य भरतमां पाछा आव्या.
स्त्र
वीरनो ध्वनि गुरुपरंपर जे मळेलो, पोते विदेह जई दिव्य ध्वनि झीलेलो;
ते संघर्यो मुनिवरे परमागमोमां, उपकार कुंद मुनिनो बहु आ भूमिमां.
अर्थ:– भरतना छेल्ला तीर्थंकर श्री महावीरप्रभुना दिव्यध्वनिनो जे उपदेश गुरु परंपराए मळेलो तथा
आचार्ये पोते महाविदेह क्षेत्रमां जईने सीमंधर भगवाननो जे दिव्यध्वनि सांभळ्‌यो तेनुं रहस्य कुंदकुंदाचार्यदेवे
परम आगम ग्रंथोमां उतार्युं छे, अने ए रीते कुंदकुंदाचार्यदेवनो आ भरतक्षेत्रमां घणो ज उपकार छे.
आ क्षेत्रना चरम जिन तणा सुपुत्र, विदेहना प्रथम जिन तणा सुभक्त;
भवमां भूलेल भवि जीव तणा सुमित्र, वंदुं तने फरी फरीने मुनि कुंदकुंद!
अर्थ:– आ भरतक्षेत्रना छेल्ला तीर्थंकर श्री महावीर भगवानना सुपुत्र, महाविदेहक्षेत्रना पहेलां तीर्थंकर
श्री सीमंधर भगवानना परम भक्त अने भवमां भूला पडेला भव्य जीवोने सम्यकमार्ग दर्शावनार साचा मित्र
ओ कुंदकुंद! तने नमस्कार करुं छुं–फरीफरीने वंदन करूं छुं.
नमुं हुं तीर्थनायकने, नमुं “कार नादने;
“कार संघर्यो जेणे, नमुं ते कुंदकुंदने.
अर्थ:– तीर्थना नायकने नमस्कार करूं छुं, दिव्य ध्वनि “कारने हुं नमस्कार करूं छुं तथा ते दिव्य ध्वनिनुं
रहस्य जेमणे संघर्युं छे एवा श्री कुंदकुंद भगवानने हुं नमस्कार करूं छुं.
सां. ९९० मां थएला श्री देवसेनाचार्यवर दर्शनसार नामना ग्रंथमां कहे छे के:–
जइ पडमणं दिणाहो सीमंधर सामिदिव्य णाणेण।
णविवोहइतो समणा कहं सुम्मगं पयाणं ति।।
४३।।
यदि पद्मनन्दि नाथः सीमंधर स्वामी दिव्य ज्ञानेन।
न विबोधति तर्हि श्रमणाःकथं सुमार्ग प्रजानन्ति।।
४३।।
अर्थ:– (महाविदेह क्षेत्रना वर्तमान तीर्थंकरदेव) श्री सीमंधर स्वामी पासेथी मळेला दिव्यज्ञान वडे श्री
पद्मनन्दि नाथे (श्री कुंदकुंदाचार्य देवे) बोध न आप्यो होत तो मुनिजनो साचा मार्गने केम जाणत?
१२ मा सैकामां थएला श्री जैन सेन आचार्य श्री पंचास्तिकाय शास्त्रनी संस्कृत टीका रचतां कहे छे के:–
मुनिपदनी दीक्षा लेवानो क्रम
“मुनिपद लेवानो क्रम तो आ छे के–पहेलांं तत्त्वज्ञान थाय, पछी उदासीन परिणाम थाय, परिषहादि सहन
करवानी शक्ति थाय, अने ते पोतानी मेळे ज मुनि थवा ईच्छे, त्यारे श्री गुरु तेने मुनिधर्म अंगीकार करावे. पण आ
तो कई जातनी विपरीतता छे के–तत्त्वज्ञान रहित, अने विषयासक्त
जीवने, मायावडे वा लोभ बतावी मुनिपद
आपी, पाछळथी अन्यथा प्रवृत्ति कराववी! पण ए महान अन्याय छे.” (मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं–१८२)
१. जे तत्त्वज्ञान रहित होय ते जीव तत्त्वद्रष्टिए विषयासक्त होय ज एवो नियम छे. २. साचुं मुनिपणुं न
होय तेमां मुनिपणुं मानीने मुनिपणा जेवी प्रवृत्ति करवी–कराववी तेनुं नाम अन्यथा प्रवृत्ति छे. ३. जे जीव मुनिपद
लेवाने लायक न होय तेवा जीवने मुनिपद आपवानी प्रवृत्ति ज्यां होय त्यां तत्त्वद्रष्टिए माया के लाभ होय ज.