Atmadharma magazine - Ank 016
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: माह : २००१ आत्मधर्म : ५९ :
२८. उपलक द्रष्टिए जोनारने नीचेनी बे शंका थवानो संभव छे:–
(१) आवा कथन सांभळवाथी के वांचवाथी लोकोने घणुं नुकशान थवा संभव छे. (२) हाल लोको जे
कांई व्रत, पच्चखाण, प्रतिक्रमणादि क्रिया करे छे ते छोडी देशे.
तेनो खुलासो नीचे प्रमाणे छे: –
सत्यथी कोईपण जीवने नुकशान थाय एम कहेवुं ते भूलभरेलुं छे अर्थात् असत् कथनथी लोकोने लाभ
थाय एम मानवा बराबर थाय छे. सत् सांभळवाथी के वांचवाथी जीवोने कदी नुकशान थाय ज नहि अने व्रत–
पच्चखाण करनाराओ ज्ञानी छे के अज्ञानी छे ते जाणवानी जरूर छे. जो तेओ अज्ञानी होय तो तेने साचा
व्रतादि होतां ज नथी तेथी ते छोडवानो प्रश्न ज नथी. जो व्रत करनार ज्ञानी हशे तो छद्मस्थ दशामां ते व्रत छोडी
अशुभमां जशे तेम मानवुं न्याय विरुद्ध छे. एम बने के ते क्रमेक्रमे शुभभावने टाळी शुद्धने वधारे. पण ते तो
लाभनुं कारण छे नुकशाननुं कारण नथी. माटे सत्य कथनथी कोईने नुकशान थाय नहि.
२९. आ रीते जीवोने सत्यनुं स्वरूप अने मोक्ष पामवानी खरी क्रियानुं स्वरूप बतावतुं आ पुस्तक
सर्वने हितनुं ज कारण छे.
एना साचा भान वगर धर्मने नामे अधर्मनुं सेवन करी रह्या होय छे. तेथी धर्मनी क्रिया शुं छे तेनुं वास्तविक स्वरूप
आ पुस्तकमां आपवामां आवेल छे...
माटे तेनो काळजी पूर्वक अभ्यास करवा जिज्ञासु जीवोने खास विनंति छे.
पोष सुद प रामजी माणेकचंद दोशी
सां. २००१ प्रमुख
सोनगढ श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट
वांचकोने:–
“मोक्षनी क्रिया” छपाईने तैयार थई गयुं छे. कागळनी तथा बीजी चीजोनी मुश्केलीने कारणे एनी
नकलो जोईए तेना करतां ओछी छापी छे माटे जे भाई बहेनो आ उपयोगी ग्रंथनुं वांचन मनन करवा
ईच्छतां होय तेओ पोतानी नकल वहेली तके मेळवी ल्ये.
मूल्य एक रूपियो – टपाल खर्च माफ
दास कुंज, मोटा आंकडिया – (काठियावाड)
• वदन यग्य कण? • (मोक्षर्माग प्रकाशक पानुं १८३–८४)
“दंसणमूलो धम्मो, उवइट्ठी जिणवरेहिं सिस्साणं तं सोउण सकण्णे, दंसणहीणो ण वंदिव्वो”
अर्थ:– सम्यग्दर्शन जेनुं मूळ छे एवो जिनवर द्वारा उपदेशेलो धर्म सांभळी, हे कर्णसहित पुरुषो! तमे एम
मानो के–सम्यक्त्वरहित जीव वंदन योग्य नथी. जे पोते कुगुरु अने कुगुरुना श्रद्धान सहित छे, ते सम्यग्द्रष्टि क्यांथी
होय? तथा सम्यक्त्व विना अन्य धर्म पण न होय, तो ते धर्म विना वंदन योग्य क्यांथी होय?
जे दंसणेसु भट्ठा, णाणे भट्ठा चरितभट्ठा य; एदे भट्ठविभट्ठा, सेसं पि जणं विणासंति
अर्थ:– जे श्रद्धानमां भ्रष्ट छे, ज्ञानमां भ्रष्ट छे, तथा चारित्रमां भ्रष्ट छे, ते जीव भ्रष्टमां पण भ्रष्ट छे,
अन्य जीवो के जेओ तेनो उपदेश माने छे, ते जीवोनो पण ते नाश करे छे–बूरुं करे छे. वळी कहे छे के:–
जे दंसणेसु भट्ठा, पाए पाडंति दंसण धराणं; ते होंति लल्लमूआ, बोही पूण दुल्लहा ते सिं।
अर्थ:– जे पोते तो सम्यक्त्वथी भ्रष्ट छे; छतां सम्यक्त्व धारकोने पोताना पगे पडाववा ईच्छे छे, ते
लुला, गुंगा वा स्थावर थई जाय छे, तथा तेने बोधनी प्राप्ति महादुर्लभ थई जाय छे.
जे पि पडंति च तेसिं, जाणंता लज्जगारव भयेण; तेसिं पि णत्थि बोही, पावं अणमोअमाणाणं।
अर्थ:– जे जाणतो होवा छतां पण, लज्जा, गारव अने भयथी तेना पगे पडे छे, तेने पण बोधी अर्थात् सम्यकत्त्व नथी..
केवा छे ए जीवो! मात्र पापनी अनुमोदना करे छे. पापीओनुं सन्मानादि करतां पण ते पापनी अनुमोदनानुं फळ लागे छे.
(नोंध:– अहीं सम्यकत्त्वरहितने वंदन न करवानुं कह्युं छे; तेथी वंदन करनारने प्रथम तो सम्यकत्त्वी अने
मिथ्यात्वीनी ओळखाण जोईए. केमके ओळख्या वगर वंदन करे तो पण वंदननुं यथार्थ फळ तेने मळे नहीं,
खरेखर तो ओळखाण वगरनुं वंदन ते वंदन ज नथी. अहीं जे वंदननी वात छे ते धर्मबुद्धिपूर्वक वंदननी वात
छे. सम्यग्दर्शन ए ज पहेलो धर्म छे, ते धर्म जेनामां नथी ते धर्मबुद्धिथी वंदन करवा योग्य नथी.)