: माह : २००१ आत्मधर्म : ६१ :
जाणे अने जेम छे तेम कहे तेमां समदर्शिता छे, तेमां राग द्वेष नथी.’ (आत्मसिद्धि प्रवचन पा. ९४)
‘ज्ञानी बेधडक सत्य प्ररूपणा करे छे, जगतने न रूचे तेथी कांई उंधी वात न कहे. ते, ज्ञानीने ज्ञानी ज
कहे अने अज्ञानीने दोषवान कहे. कोई आत्मानी निंदा न करे पण जेम छे तेम कहे, तेमां कोईने विखवाद थाय
तेवुं होय तो कवचित वखत जोईने मौन रहे, पण असत्य मान्यता, कुतर्क, कुदेव, कुधर्म, कुशास्त्रने खोटा कहीने
निषेध करवो, तेमां (खोटानो निषेध करवामां) ज्ञानीनो दोष नथी.
कोई कहे छे के ‘द्रष्टि विष गया पछी बधुं य सरखुं देखाय’ ए वात खोटी छे. ज्ञानी सत्य–असत्य, झेर,
अमृत, परभाव–स्वभाव, अकषाय अने कषाय एने सरखा न माने पण जेवुं छे तेवुं माने, कहे, असत्यनो
निषेध करे. कुज्ञानी (असमदर्शि) सत्यने नहि ओळखवाना कारणे ज्ञाननो, सत्यनो निषेध करे छे.
(आत्मसिद्धि पानुं ९प)
‘समदर्शिपणुं एवुं न होय के सत्य–असत्य, सार–असार, हित–अहितने सरखा छे एम जाणे. मांस
अने रोटलानी अवस्थाने जेम छे तेम विवेकथी जाणे. स्त्री, पुरुष, माता बेन जेम छे तेम ते दशारूपे जाणे पण
अन्यथा न माने. खोटी मान्यतावाळाने खोटा माने (जाणे). एवा बळवान विवेकवान समदर्शि धर्मात्मा होय
छे. × × खोटाने खोटुं कहेवुं तेमां द्वेष नथी, पण जेम छे तेम मानवुं तेमां ज समदर्शिता एटले समभाव छे. पण
राग, द्वेष, मान, अपमान सरखा मानवा ते समभाव नथी. (आत्मसिद्धि पानुं १२प)
‘जेम छे तेम जाणे पण तेमां राग, द्वेष न करे ए समदर्शिताना लक्षण छे. × × स्वभावमां राग–द्वेष
रहित पण रहेवुं ए समदर्शिता. (आत्मसिद्धि पा. १२८)
“स्वच्छंदे पोतानी मति कल्पनाथी सर्वज्ञ परमात्माना न्यायने अल्पज्ञ जीवो बीजा लौकिक धर्म साथे
सरखावे छे. क्यां सूर्यनुं तेज अने क्यां आगियानुं तेज? एनो समन्वय करनारा सूर्यने ढांकवा प्रयत्न करे छे
ए बधा आत्मज्ञानथी अजाण छे. सत्यने सत्य अने असत्यने असत्य मानवुं, कहेवुं, उपदेशवुं तेमां दोष नथी.
समदर्शि होवा छतां अविरोधपणे जेम छे तेम कही शके छे. अने ते साचुं समदर्शिपणुं समजवुं.”
(आत्मसिद्धि पानुं १३२)
गृहीत मिथ्यात्वनुं स्वरूप
गृहीत मिथ्यात्वना पांच भेद छे:
१–एकांतिक मिथ्यात्व, २–सांशयिक मिथ्यात्व, ३–विपरीत मिथ्यात्व, ४–अज्ञानीक मिथ्यात्व अने
प–वैनयीक मिथ्यात्व. ए पांच भेदोनुं स्वरूप कहेवामां आवे छे.
(१) –एकांतिक मिथ्यात्वनुं लक्षण–
यत्राभिसंन्निवेशः स्यादत्यन्तं धर्मिधर्मयोः।
इदमेवेत्थमेवेति तदैकान्तिकमुच्यते ।। ४।।
(तत्त्वार्थसार, अध्याय छठो)
अर्थ:– द्रव्य गुण वगेरे तत्त्वोमां अर्थात् धर्म अने धर्मीमां परस्पर एकांत जुदापणुं मानवुं, धर्मनुं के
धर्मीनुं स्वरूप कोई एकांत प्रकारनुं मानीने हठ करवी, ‘आ आ प्रकारे छे–आम ज छे अर्थात् आ धर्म नित्य ज
छे के अनित्य ज छे, आ धर्म ज छे अथवा धर्मी ज छे’ एम कोईना स्वरूपमां सर्वथा एकान्तनो आग्रह
राखवो ते एकान्तिक मिथ्यात्व छे.
द्रष्टांत:– ‘शब्द अमूर्तिक ज छे, आकाशनो ज गुण छे अथवा जेम स्पर्शनुं ज्ञान ईन्द्रिय साथे ते
विषयनो संबंध थवाथी थाय छे तेम चक्षु अने मनना विषयनुं ज्ञान पण ते विषयना संबंध थया वगर थवुं न
जोईए’ आ सिद्धांत (कल्पना) नी पुष्टि जो के प्रत्यक्ष बाधित (खोटी) छे तो पण तेने पुष्ट करवा माटे
अलौकिक चक्षुनी कल्पना करी लीधी; परंतु असंबंध विषयोने जाणी लेवामां पण वस्तुनुं स्वरूप समर्थ छे एवा
अनेकान्तिक न्यायनो स्वीकार न कर्यो. शाखा, चन्द्र वगेरे तद्न जुदी अने दूर रहेली वस्तुओ एक साथे देखाय
छे तेथी उपरनी कल्पना खोटी पडे छे; तेम ज आघात अने प्रतिघात–अथडावापणुं होवाथी शब्द अमूर्तिक
आकाशनो गुण बनी शकतो नथी [केमके