Atmadharma magazine - Ank 016
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: ६२ : आत्मधर्म २००१ : माह :
अमूर्तिक वस्तुना गुण मूर्तिक होई शके नहि] तोपण एकान्तिक कल्पनाओने जे नथी ज छोडता ते बधा
एकांतिक मिथ्यात्वी छे.
आ प्रमाणे ज्यारे संयोग संबंध बे जुदी वस्तुओनो होय छे त्यारे गुणगुणी संबंध पण गुण अने
वस्तुने एक बीजाथी जुदा सिद्ध करशे अने ए संबंध पण, गुण छे ते वस्तुथी एक जुदो ज पदार्थ छे एवी
सर्वथा गुण अने वस्तुनी जुदापणानी कल्पना करवी वगेरे कल्पनाओ ते बधी एकान्तिक मिथ्यात्वना उदाहरण
छे. वस्तुना बधा धर्मो एकांतरूप अथवा कोई एक एक प्रकारना ज नथी छतां पण तद्न एकांत मानवुं ए ज
एकान्त मिथ्यात्व छे.
(२) –सांशयिक मिथ्यात्वनुं लक्षण–
किं वा भवेन्न वा जैनो धर्मोऽहिंसादि लक्षणं।
इति यत्र मतिद्वैधं भवेत्सांशयिकं हि तत् ।।
५।।
अर्थ:– जैनधर्म अहिंसामय छे अथवा कोई कोई विषयमां हिंसामय पण छे–ए वगेरे संशय–सहित बे
प्रकारनी मान्यता ते ज सांशयिक मिथ्यात्व छे.
जे पदार्थनुं निश्चय स्वरूप न जणायुं होय तेना संबंधमां शंका थवी ते संशय मिथ्यात्व नथी, केमके मोटा
मोटा तत्त्वज्ञानीओने पण (छद्मस्थ दशामां) शंका उत्पन्न थाय छे. ज्यां सुधी अपूर्ण अवस्था छे त्यां सुधी
संशय रहेवो ते असंभव नथी. मुनि होय तेने पण श्रुतज्ञानना सूक्ष्म तत्त्वमां (कोईकवार) शंका ऊपजे छे,
अने त्यारे आहारक शरीर द्वारा केवळी भगवानना दर्शनथी मुनि पोतानी शंका दूर करे छे; (त्यां) आहारक
शरीरने पण एक प्रयोजन मानवामां आव्युं छे. तेथी करीने संशय होवो ते कांई अनुचित नथी (अर्थात् तेथी
मिथ्यात्व नथी). पण आगम अने युक्तिना प्रमाण मळवा छतां पण तत्त्व अने धर्मना मार्गमां संशय राखवो
ते संशय मिथ्यात्व छे. एवा संशय होवाना अनेक कारणो होय छे; एक कारण तो ए होय छे के–घणा काळथी
मिथ्यात्वनो उपदेश मळ्‌या कर्यो होय छे; बीजुं कारणबुद्धिनी अने मध्यस्थ परिणामोनी ओछप; त्रीजुं कारण–
गुरुकुळमां रहीने (अर्थात् सत्समागम करीने) सिद्धांतोनुं अध्ययन न करवुं; चोथुं कारण–धर्म बंधनने
(नियमोने) दुःखदायक मानवा; पांचमुं कारण–स्वच्छंदतामां आनंद मानवो; छठुं कारण–बधी बाबतोनो विरोध
करवानुं अभिमान तथा विनोद राखवो–आ वगेरे कारणोने लीधे माणसो तत्त्वना साचा उपदेशमां तथा धर्ममां
पण शंका उत्पन्न करवा लागे छे. ज्यारे हंमेशांं शंका राखवानी टेव पडी जाय अने आगम तथा युक्तिनुं प्रमाण
मळवा छतां पण ते प्रमाणो तरफ ध्यान पहोंचाडे नहि त्यारे ते संशय मिथ्यात्व कहेवाय छे. ज्यां कोई निर्णय
करवा माटे शंका उपस्थित करवामां आवे अने पछी विचार करीने नक्की थयेल सिद्धांतनो स्वीकार करे तो त्यां
संशय छे पण मिथ्यात्व नथी. जैनधर्म के जैन व्रत सत्य छे के नहि–आ वात तत्त्वोनी परीक्षा करवाथी नक्की थई
शके छे, जैनतत्त्वोमां पूर्वापर विरोध होई शकतो नथी तेथी जैनधर्मनी सत्यतामां शंका राखवी ते मिथ्यात्व छे.
ज्यां सुधी आगम पोते ज प्रमाण न मानवामां आवे त्यां सुधी धर्मनुं स्वरूप नक्की थई शकतुं नथी. जो
आगमने सर्वज्ञना उपदेश अनुसार मानवामां आवे तो ज तेने प्रमाण मानी शकाय छे. जे देश–काळनी तथा
मनुष्योनी ईच्छानी अनुकूळता जोईने बनाववामां आव्या होय ते, प्रथम तो वास्तविक सुखसाधक होई शके
नहि; केमके मनुष्योनी ईच्छा स्वभावथी ज स्वार्थ पर एटले के पोतानुं धार्युं करवानी होय छे, ते स्वार्थ पर
ईच्छाओनुं ज्यारे जोर चडे छे अर्थात् ईच्छा खूब वधी जाय छे त्यारे चोरी वगेरे अन्याय पण ईच्छानुसार थई
जाय छे; बीजी वात ए छे के–ते ग्रंथो त्रिकाल अबाधित अने बधानुं हित करनार होतां नथी, केमके ईच्छाओ
अनेक प्रकारनी अने एक बीजाथी विरुद्ध थया करे छे तेथी करीने ते बधी ईच्छाओ अनुसार कार्य कया प्रकारे
साधी शकाय? माटे ते (देश–काळ तथा मनुष्योनी ईच्छा अनुसार बनाववामां आवेला) ग्रंथो बधाने मान्य
थाय ए सर्वथा कठिन छे–अशक्य छे, तेथी करीने शास्त्रोने सर्वज्ञना उपदेश अनुसार मानवामां आवे छे.
सर्वज्ञनो उपदेश वास्तविक अने बधा जीवोने हितकारक होय छे; केमके सर्वज्ञने चराचर बाधक–साधक
बधुं जणाय छे तेथी तेमनो उपदेश विरोध अने बाधा रहित होय छे, अने तेमना उपदेशमां स्वत: प्रमाणता
होय छे. शास्त्रने पोताने ज प्रमाण मान्या वगर जे धर्मनो निश्चय करवा मागे छे तेने माटे तो एम कहेवुं
जोईए के ते तेनी बुद्धिने प्रमाण माने छे! पण