छे. वस्तुना बधा धर्मो एकांतरूप अथवा कोई एक एक प्रकारना ज नथी छतां पण तद्न एकांत मानवुं ए ज
एकान्त मिथ्यात्व छे.
इति यत्र मतिद्वैधं भवेत्सांशयिकं हि तत् ।।
संशय रहेवो ते असंभव नथी. मुनि होय तेने पण श्रुतज्ञानना सूक्ष्म तत्त्वमां (कोईकवार) शंका ऊपजे छे,
अने त्यारे आहारक शरीर द्वारा केवळी भगवानना दर्शनथी मुनि पोतानी शंका दूर करे छे; (त्यां) आहारक
शरीरने पण एक प्रयोजन मानवामां आव्युं छे. तेथी करीने संशय होवो ते कांई अनुचित नथी (अर्थात् तेथी
मिथ्यात्व नथी). पण आगम अने युक्तिना प्रमाण मळवा छतां पण तत्त्व अने धर्मना मार्गमां संशय राखवो
मिथ्यात्वनो उपदेश मळ्या कर्यो होय छे; बीजुं कारणबुद्धिनी अने मध्यस्थ परिणामोनी ओछप; त्रीजुं कारण–
गुरुकुळमां रहीने (अर्थात् सत्समागम करीने) सिद्धांतोनुं अध्ययन न करवुं; चोथुं कारण–धर्म बंधनने
(नियमोने) दुःखदायक मानवा; पांचमुं कारण–स्वच्छंदतामां आनंद मानवो; छठुं कारण–बधी बाबतोनो विरोध
करवानुं अभिमान तथा विनोद राखवो–आ वगेरे कारणोने लीधे माणसो तत्त्वना साचा उपदेशमां तथा धर्ममां
पण शंका उत्पन्न करवा लागे छे. ज्यारे हंमेशांं शंका राखवानी टेव पडी जाय अने आगम तथा युक्तिनुं प्रमाण
मळवा छतां पण ते प्रमाणो तरफ ध्यान पहोंचाडे नहि त्यारे ते संशय मिथ्यात्व कहेवाय छे. ज्यां कोई निर्णय
करवा माटे शंका उपस्थित करवामां आवे अने पछी विचार करीने नक्की थयेल सिद्धांतनो स्वीकार करे तो त्यां
संशय छे पण मिथ्यात्व नथी. जैनधर्म के जैन व्रत सत्य छे के नहि–आ वात तत्त्वोनी परीक्षा करवाथी नक्की थई
मनुष्योनी ईच्छानी अनुकूळता जोईने बनाववामां आव्या होय ते, प्रथम तो वास्तविक सुखसाधक होई शके
नहि; केमके मनुष्योनी ईच्छा स्वभावथी ज स्वार्थ पर एटले के पोतानुं धार्युं करवानी होय छे, ते स्वार्थ पर
ईच्छाओनुं ज्यारे जोर चडे छे अर्थात् ईच्छा खूब वधी जाय छे त्यारे चोरी वगेरे अन्याय पण ईच्छानुसार थई
जाय छे; बीजी वात ए छे के–ते ग्रंथो त्रिकाल अबाधित अने बधानुं हित करनार होतां नथी, केमके ईच्छाओ
अनेक प्रकारनी अने एक बीजाथी विरुद्ध थया करे छे तेथी करीने ते बधी ईच्छाओ अनुसार कार्य कया प्रकारे
साधी शकाय? माटे ते (देश–काळ तथा मनुष्योनी ईच्छा अनुसार बनाववामां आवेला) ग्रंथो बधाने मान्य
होय छे. शास्त्रने पोताने ज प्रमाण मान्या वगर जे धर्मनो निश्चय करवा मागे छे तेने माटे तो एम कहेवुं
जोईए के ते तेनी बुद्धिने प्रमाण माने छे! पण