Atmadharma magazine - Ank 016
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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अमे कही गया छीए के अल्पज्ञोनी बुद्धि सर्वस्वरूपनो निश्चय करी शकती नथी; तेथी जे बाबत तेना
समजवामां न आवी होय ए सूक्ष्मतत्त्व, स्वबुद्धिप्रमाणवादीओने एटले के पोतानी बुद्धिने जेओ पूर्ण मानी
बेठा छे तेने जाणवामां आवी शकतुं नथी, आ रीते पूर्ण धर्मना स्वरूपमां भंग उत्पन्न थाय छे अने धीमे धीमे
आ प्रकारे वास्तविक धर्म ढंकाई पण जाय छे. आ दोष स्वबुद्धिप्रमाणवादीओ अनुसार संसारमां फेलाय छे. जो
आगमने पोताने ज प्रमाण मानवामां आवे तो आ दोष उत्पन्न थई शकतो नथी. जो कोई आगम–
प्रमाणवादीना जाणवामां कोई धर्म के उपदेशनुं स्वरूप न आव्युं होय तो पण तेने ते प्रमाण माने छे के जेथी
करीने साचा धर्ममां भंग के विस्खलना थती नथी. तेथी कह्युं छे के–जैनधर्मना स्वरूपमां शंका राखवी ते
मिथ्यात्व दोष छे, जेनाथी स्व–परनुं बूरुं थवुं संभवे छे अने जे आत्मज्ञानथी विमुखता थई रही छे तेनुं पोषण
थाय छे.
(३) विपरीत मिथ्यात्वनुं लक्षण
सग्रन्थोपि च निर्ग्रन्थो ग्रासाहारी च केवली।
रुचिरेवंविधा यत्र विपरीतं हि तत्स्मृतम्।।
६।।
अर्थ:– ग्रंथ ए परिग्रहनुं नाम छे. सर्ग्रंथ अर्थात् परिग्रह सहित होवा छतां पण निर्ग्रंथ एटले परिग्रह
रहित मानी लेवामां आवे तो एवी श्रद्धाने विपरीत मिथ्यात्व कहे छे. आ प्रमाणे भोजनरूप पर वस्तुमां
प्रवृत्ति करनारने पण केवळज्ञानी मानवुं ते पण विपरीत मिथ्यात्वनुं एक उदाहरण छे.
जो निष्परिग्रह होय तो वस्त्र वगेरे परिग्रह राखवा माटे उत्सुक कईरीते थाय? (निष्परिग्रहपणुं अने
परिग्रहनी उत्सुकता ए बन्ने) एकबीजाथी विरुद्ध छे. जे वस्त्र वगेरे परिग्रह राखतुं होय ते परिग्रहथी विरक्त
होई शके नहि अने जे परिग्रहने पोताथी भिन्न जाणीने तेनाथी विरक्त थाय ते वस्त्र वगेरे परिग्रह ग्रहण
करवामां प्रवृत्त होई शके नहि. आ प्रमाणे एकबीजाथी विरोधी वातो होवा छतां पण (ते बन्ने) एक जीवमां
रहे छे एम मानवुं ते बुद्धिनी विपरीतता ज छे; एवी जे बुद्धिनी विपरीतता छे ते आत्मज्ञानथी बहिर्मुख
होवानुं लक्षण छे, तेथी ज आ विपरीतरूप बहिर्मुखतानुं नाम विपरीतमिथ्यात्व राख्युं छे.
ज्यारे चारे घातिकर्मो नाश थाय छे त्यारे केवळज्ञान थाय छे. जीवने परवस्तुमां मोहित करे, पराधीन
करे, परवस्तुओ वगर निर्वाह नहि थाय एवी मान्यता उत्पन्न करे ए घातिकर्मोनुं कार्य छे; तेथी करीने जीव
ज्यां सुधी घातिकर्मोना उदयमां जोडाय छे त्यां सुधी क्षुधा वगेरे दोषोथी व्याकुळ रहे छे अने अनुकूळ संयोग
मेळवतो रहे छे. पण जे मोह वगेरे घातिकर्मोनो नाश करीने निर्मोह तथा केवळज्ञानी थई गया छे तेने अमे
जीवनमुक्त कहीए छीए. जीवनमुक्तनो अर्थ आ छे के–जे परवस्तुओनो संग्रह कराववावाळी बधी क्रियाओथी
छुटी गया छे अने रत्नत्रयने सिद्ध जीवोनी समान पूर्ण करी लीधा छे, परंतु अघातिकर्म तथा पूर्वे धारण करेल
शरीरमांथी जुदा पड्या नथी तेथी मुक्त होवा छतां पण जीवित छे–अर्थात् शरीर, आयु, श्वासोच्छवास तथा
ईन्द्रियप्राणो रहेला छे तेथी जीवित कहेवाय छे. परंतु बुद्धिपूर्वक एटले के ईच्छा सहित पुद्गलने ग्रहण करवानुं
तद्न छोडी दीधुं छे, एवा केवळी थया पछी पण कवलाहारने खाय ते परस्पर संबंध रहित अर्थात् विरुद्ध कार्य
छे, ते कारणथी (केवळज्ञान अने कवलाहार ए बन्ने एक ज जीवमां मानवुं) एवुं श्रद्धान आत्मज्ञानथी
रहितपणुं बतावे छे जेथी करीने अमे तेने विपरीतमिथ्यात्व एवा अन्वर्थ नामथी संबोधीए छीए.
(४) –अज्ञानीक मिथ्यात्वनुं लक्षण–
हिताहितविवेकस्य यत्रात्यंतमदर्शनं।
यथा पशुवधो धर्मस्तदज्ञानिकमुच्यते।।
७।।
अर्थ:– जे मतमां हित के अहितनुं जरा पण विवेचन न होय, संसारी जीवोने हितने माटे ज उपदेश न
देतां अहितमां प्रवृत्ति कराववानो उपदेश छे ते अज्ञानीकमिथ्यात्व छे; तेनुं सौथी मोटुं उदाहरण ‘यज्ञमां
पशुओनो होम करवो अने पाछो वळी तेने धर्म बताववो’ ते छे. जे हिंसा कोई पण काळमां कोईने माटे
वास्तविक हितदायी न होई शके ते हिंसा करवानो लोकोने उपदेश देवो अने ‘हिंसा करवाथी तमने धर्म थशे, धर्म
प्राप्त थवाथी स्वर्गादिनुं सुख मळशे’ एम आशा कराववी ते घोर अज्ञान छे; केमके आ तो सर्व कोई जाणे छे के–
संसारमां सर्वेने पोत पोताना प्राण वहाला होय छे अने नाना मोटा दरेक जीव, पोताथी बने तेटलो प्रयत्न
तेनी रक्षा माटे करे छे, तो कोई स्वार्थवश पशुओने मारवानी आज्ञा करवी अने तेनाथी धर्म थवानी लालच